सर्वोच्च न्यायालय का अनुसूचित जाती उपवर्गिकरण / क्रिमीलेयल निर्णय संविधान विरोधी ? डॉ. मिलिंद जीवने
Автор: dr.milind jiwane
Загружено: 2025-11-20
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🎓 सर्वोच्च न्यायालय के अनुसूचित जाती / जनजाती उपवर्गिकरण करने से न्या धनंजय चंद्रचूड अध्यक्षता वाली सात बेंच का फैसला जाती जातीं में वैमनस्य तथा देश में अशांती - अधोगती का कारक होगा !
डॉ मिलिन्द जीवने 'शाक्य'
मैं पिछले आठ दिनों से, मा. सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन प्रमुख न्यायाधीश मा. धनंजय चंद्रचूड इनके अध्यक्षता वाली सात न्यायाधीशों की पीठ जिसमे - न्या. भुषण रा. गवई / न्या विक्रमनाथ / न्या. बेला त्रिवेदी / न्या. मनोज मिश्रा / न्या. पंकज मित्तल / न्या. एस सी वर्मा इनके १ अगस्त २०२४ का "६:१ अनुपात" का निर्णय "पंजाब सरकार विरुध्द दविंदर सिंह" केस संदर्भ में अध्ययन कर रहा था. और न्या. बेला त्रिवेदी इनकी संविधान निष्ठा भी देख रहा था. उस विषय पर मेरा लेख मिडिया में है. साथ ही इंदिरा सहानी विरुध्द भारत सरकार इस केस के "ओबीसी वर्ग के क्रिमीलेयर / आरक्षण मर्यादा ५०% तक ही सिमित होना" यह १६ नवंबर १९९२ को "६:३ अनुपात" में निर्णय देनेवाले नव बेंच न्यायाधीश पिठ - जिसमें तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एम. एच. केनिया तथा न्या. एस. एम. अहमदी / न्या. जे. एस. वेंकटचलैया / न्या. बी. पी. जीवन रेड्डी / न्या. पांडियन / न्या. पी. बी. सावंत / न्या. टी. के. थोमेन / न्या. कुलदिप सिंह / न्या. आर. एम. सहाय इनकी वैचारिक बुध्दी का भी आकलन कर रहा था. वही "अनुसूचित जाती / जमाती वर्ग एक समुह है. उनका वर्गिकरण नहीं किया जा सकता" यह निर्णय ५ नवंबर २००४ को इ. व्ही. चिनैय्या विरुध्द आंध्र प्रदेश सरकार" इस केस में, "४:१ अनुपात" में देनेवाले न्यायाधीश जिसमे न्या. एन संतोष हेगडे / न्या. एस. एन. वारियावा / न्या. बी पी सिंह / न्या. एम के सेमा / न्या. एस व्ही सिंह इस अपिल को भी देख रहा था. उसी बीच भारत के सर्वोच्च न्यायालय के सरन्यायाधीश भुषण गवई इनका आंध्र प्रदेश स्थित अमरावती को सत्कार का बयाण
भारत की "सर्वोच्च न्यायालय" यह, सर्वोच्च नहीं "सवर्ण न्यायालय" दिखाई देती है. अगर "कोलोजीयम सिस्टम" न्यायालय में ना होता तो, न्यायालय में बैठे हुये न्यायाधीश "चपराशी वर्ग ४ की स्पर्धा परीक्षा" भी, वे पास किये होते क्या ? यह एक संशोधन का विषय है. मैने न्यायाधीशों के ऐसे भी निर्णय देखे है, वह "न्यायालय की तोहिम" कही जा सकती है. "मेरे अपने स्वयं" के ही केस का मैं उदाहरण देता हुं. माजी सनदी अधिकारी - इ. झेड. खोब्रागडे इस ना-लायक ने, "संविधान साहित्य संमेलन" का आयोजन किया था. मेरी संघटन "सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन" द्वारा उस सम्मेलन का विरोध किया गया था. "भारतीय संविधान यह साहित्य नहीं है. वह "कानुन की किताब" (Legal Book) नहीं है. वह "कानुनी दस्तावेज" (Legal Documents) है." खोब्रागडे के दिमाग का वह रहमान किडा अलग कुछ करने जा रहा था. मैने स्वयं इ. झेड. खोब्रागडे और उसकी पत्नी रेखा / "संविधान फाऊंडेशन" को भी कानुनी नोटीस भेजा. जब खोब्रागडे यह बाज नहीं आया तो, नागपुर उच्च न्यायालय में याचिका क्र. ३९४०/२०१९ दायर की थी. सदर मेरी याचिका रवि देशपांडे / विनय जोशी इनके बेंच के सामने लगी थी. मेरी ओर से मा सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकिल एड. चेतन बैरवा /मेरे मित्र एड. बी. बी. रायपुरे पैरवी कर रहे थे. मेरी याचिका में न्यायाधीश द्वय ने यह कह कर *खारीज" की, वह निर्णय देखे - "The ground of challenge is that the literature can be obsence also. And therefore, there should be prevention in holding such a program is purely hypothetical and imaginary. Apart from that, we don't find any fundamental rights in favour of the petitioner or any fundamental duty cast which can be enforced by way of filling writ petition under article 226 of the constitution of India. Writ petition is therefore dismissed. No cost " क्या मैने मेरे मुलभूत अधिकारों के हनन के याचिका दायर की थी ? "भारत के संविधान का सन्मान करना हम सभी का दायित्व है." इसलिए वह याचिका दायर की थी. साहित्य स्वीकार ना हो वह जलाया भी जा सकता है. जैसे बाबासाहेब डॉ आंबेडकर साहेब ने "मनुस्मृती का दहन" किया था. खोब्रागडे के इस नालायकी के कारण "नयी दिल्ली के जंतर मंतर पर भारतीय संविधान को जलाया" गया था.अत: दोषी तो इ झेड खोब्रागडे भी है, वह दोनो न्यायाधीश भी है. इस तरह के न्यायाधीश हमारे न्याय व्यवस्था में बैठे है. किसी न्यायाधीश के बंगले पर "करोडो की करंसी" मिलती है / कोई न्यायाधीश "धर्मांधवाद की बात" करता है / किसी न्यायाधीश का "नैतिक चरित्र ही नहीं" होता / कोई न्यायाधीश "मनु का पुतला बिठाने की अनुमती" दे जाता है, और क्या क्या कहे ? इसलिए न्याय व्यवस्था में "नियुक्त न्यायाधीश" वह मेरीट धारक हो. "कोलोजीयम सिस्टम" से रिकमंडेड बिन-अकल न्यायाधीश" ना हो. ना ही नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा संविधान अनुच्छेद १२४ (A) अंतर्गत "National Judicial Appointments Commission" (NJAC) वाले नियुक्त न्यायाधीश हो. क्यौ कि, राजकिय अधिपत्य न्यायव्यवस्था पर निश्चित आया होता. "मा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस कानुन को निरस्त" किया गया. अत: "न्यायाधीश नियुक्ती यह केंद्रीय लोकसेवा आयोग (UPSC) बेस पर स्पर्धात्मक परिक्षा से पास हुये" न्यायाधीश हो. इसलिए ही "Union Public Judicial Commission" (UPJC) की स्थापना कर, स्पर्धा परीक्षा से पास हुये "मेरीट न्यायाधीश" होना बहुत जरुरी है. ता कि हमारे "भारत की न्यायव्यवस्था" का एक प्रभाव हो. उन पर किसी भी व्यवस्था का दबाव ना हो. वह स्वतंत्र निकाय हो. सर्वोच्च न्यायालय यह "भारतीय संविधान का कस्टोडियन" है. वह "वॉच डॉग" है. ना कि हमारी "संसद" / ना ही हमारे देश के "राष्ट्रपती" / ना ही "प्रधानमंत्री." अत: सर्वोच्च न्यायालय द्वारा "भारतीय संविधान की गरीमा" रखना यह बहुत जरुरी है.
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