कहानी: दादी की मुस्कान।
Автор: Anything, Anywhere & Anytime
Загружено: 2025-10-12
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बुढ़ापे की एक छोटी-सी छाँव थी — वह छाँव दादी के घर की थी। दादी का नाम सीता था। सीता अब पेड़ों जैसी धीमी चली, लेकिन आँखों में हमेशा कहानी और हाथों में नर्म चाय की चुस्की रहती थी। उसका घर दो कमरे का था — एक बरामदा जहाँ तन्हा धूप आती, और एक आँगन जहां एक छोटा-सा आम का पेड़ झूमता था। उसकी बहू, रीता, सॉस के साथ रहती — मेहनती, शांत और हर समय घर संभालने में लगी रहती। रीता का एक बेटा था राहुल — आठ साल का नटखट, जिंदादिल और जानकारी के लिए उत्सुक।
परिवार में प्यार था, पर कभी-कभी परेशानियाँ छोटी-छोटी बातों से बड़ा आकार ले लेती थीं। दादी का मानना था कि घर की हर बात धीरे-धीरे, परंपरा और अनुभव से सुलझती है। रीता चाहती थी कि सब कुछ समकक्ष हो — बच्चों की पढ़ाई, घर की सफाई और कामों में समय की पाबंदी। राहुल? वह तो दुनिया को रंग-बिरंगा समझता था — उसके पास रोज़ नए सवाल, नए खेल और नए-नए शैतानियाँ थीं।
एक दिन आँगन में आम पक रहा था। राहुल ने सोचा, "अगर मैं आम तोड़कर स्कूल ले जाऊँगा, तो सारे दोस्त खुश होंगें!" उसने चुपके से सीढ़ी चढ़ी और पेड़ से एक तेज़-सा झटका दिया। आम टूटे, कुछ छूटे, कुछ नीचे गिरते ही आँगन में ढेर हो गए। तभी दादी देख लीं। उनके चेहरे पर चिंता थी — क्योंकि वह आम सिर्फ खाने के लिए नहीं, बल्कि दादी ने बचा कर रखा था — बेटे की याद में, और उन दिनों के लिए जब दादी के हाथों में आम न हों। राहुल को डाँट मिली। रीता ने भी समझाया कि बिना पूछे चीज़ लेने नहीं चाहिए। राहुल आँखें नम कर ले गया, दादी ने उसे निहार कर कहा, "बेटा, आम मीठे हैं पर जिम्मेदारी भी चाहिए।"
उस शाम दादी ने चाय की टेस्पून पर एक कहानी सुना दी — अपनी जवानी की, जब वे भी कुछ गलती करके सिख गई थीं। कहानी में दादी ने बताया कि किस तरह एक छोटा क़दम घर में बड़ी बहस कर लेता था और कैसे प्यार से बातें करने पर सब ठीक हो जाता था। रीता ने महसूस किया कि उन्होंने राहुल को केवल नियम सीखाए, पर दादी ने उसे संवेदना और अनुशासन का मिलाजुला पाठ पढ़ाया। दोनों के बीच कुछ पुल बन गया।
एक हफ्ते बाद, रीता की नौकरी का दबाव बढ़ गया। उसे देर तक काम पर रहना पड़ने लगा और घर के काम का बोझ उसके ऊपर भारी हो गया। दादी ने देखा कि रीता थकी हुई और चिड़चिड़ी हो रही है। उन्होंने निश्चय किया कि वह रीता की मदद बढ़ाएँगी, पर दादी की सेहत भी अब पहले जैसी नहीं थी — कभी-कभी मल-तोड़ महसूस होता, कभी-कभी यादों का झरना बह निकला। एक शाम दादी ने रीता को बुलाया और बोली, "बेटी, मैं तुम्हें वक़्त दे पाऊँ इसे लेकर चिंतित हूँ। आओ, मिलकर काम बांट लें।"
रीता पहले तो झिझकी — गर्व और स्वतंत्रता का भाव था — पर फिर उसने दादी का हाथ थामा। उन्होंने रसोई के काम, राहुल की पढ़ाई और घर की छोटी-छोटी चीज़ों को तय किया। दादी ने राहुल को पढ़ना सिखाने का जिम्मा लिया — वह गणित के सवालों में सरल तरीके से बातें बतातीं, कहानियों से शब्दों को जोड़तीं। राहुल की पढ़ाई में दादी का सौम्य तरीका असर दिखाने लगा — अंक सुधरने लगे और राहुल का आत्मविश्वास बढ़ा।
समय के साथ छोटे-छोटे खटपट भी आईं — कभी रीता थककर नाराज़ हो जातीं कि दादी पुरानी बातें ज़ोर-ज़ोर से दोहराती हैं, तो कभी दादी को लगता कि रीता बहुत तेज़ चल रही है। पर हर बार, वे तीनों मिलकर बैठते और दादी की चाय के साथ बातें करते। दादी ने रीता को सिखाया कि घर केवल काम नहीं, भावनाओं का एक छोटा मंदिर भी है; रीता ने दादी को सिखाया कि समय बदलता है और नए तरीके भी अपनाने चाहिए; राहुल ने दोनों को सिखाया कि मुस्कान और छोटा-सा "धन्यवाद" कितना बड़ा करिश्मा कर देता है।
एक बार, राहुल स्कूल में गणित की प्रतियोगिता में हिस्सा लेने का मौका मिला। वह डर गया कि क्या वह अच्छा कर पाएगा। दादी ने उसकी छोटी-छोटी गलतियों पर हंस कर सही किया, रीता ने रात भर उसके साथ अभ्यास किया, और आख़िरकार राहुल ने प्रतियोगिता में दूसरा स्थान पाया। राहुल की खुशी घर में गूँज उठी — दादी की आँखें नम थीं और रीता मुस्कुराई। उसी शाम दादी ने कहा, "देखा बेटा, सपोर्ट से बड़े से बड़ा डर जिता जा सकता है।"
कहानी का मूल यही था — उम्र, नौवाली और माँ-बेटे के रिश्ते में संतुलन। दादी ने सीखा कि बदलता समय दुख नहीं, अवसर लाता है; रीता ने सीखा कि मदद माँगना कमज़ोरी नहीं; और राहुल ने सीखा कि प्यार और जवाबदेही साथ-साथ चलते हैं। घर अब पहले से भी ज़्यादा सजीव था — छोटी सी बहसें भी अब मीठी बातें बनकर क्षमा हो जातीं, और हर शाम दादी की चाय पर तीनों की हँसी गूँजती।
अंत में दादी ने आँगन में उगे आम के पेड़ को देखा — वह अब थोड़ा-सा झुर्रियों जैसा था पर फिर भी हर साल फल देता था। दादी ने एक आम तोड़ा, उसे धीमे से राहुल के हाथ में रखा और कहा, "बेटा, यह सिर्फ आम नहीं — हमारी जिम्मेदारी, हमारी कहानी और हमारी खुशी है।" राहुल ने बड़े ही प्यार से कहा, "दादी, मैं संभालूँगा।" दादी की मुस्कान में सारी दुनिया समा गई।
नैतिक: परिवार में उम्र और नई सोच का मेल तब खूबसूरत बनता है जब हम एक-दूसरे के दर्द और कोशिशों को समझकर साथ चलें।
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