संत कवि श्री सुंदर दास जी महाराज दादूपंथी के सवैया ( सुंदर ग्रंथावली)
Автор: श्री दादू अमृतवाणी
Загружено: 2024-08-31
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प्रीति प्रचंड लगै परब्रह्म हि,
और सबै कछु लागत फीकौ ।
शुद्ध हृदै मति होइ सु निर्मल,
द्वैत प्रभाव मिटै सब जी कौ ॥
गोष्ठि रु ज्ञांन अनंत चलै तहं,
सुन्दर जैसें प्रवाह नदी कौ ।
ताहि तैं जानि करौ निसवासर,
साधु कौ संग सदा अति नीकौ ॥१॥
तात मिले पूनी मात मिले,सुत भ्रात मिले युवती सुखदायी।
राज मिले गजबाज मिले, सब साज मिले मन वांछित पाई।।
लोक मिले सुर लोक मिले, विधी लोक मिले बैकुण्ठा जाये।
सुन्दर और मिले सब ही सुख, संत समागम दुर्लभ भाई।।
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मात पिता जुवती सुत बंधव,
आइ मिल्यौ इनसौं सनबंधा ।
स्वारथ के अपने अपने सब,
सो यह नांहि न जानत अंधा ॥
कर्म विकर्म करै तिनकै हित,
भार धरै नित आपने कंधा ।
अंत बिछौह भयौ सब सौं पुनि,
याहि तैं सुन्दर है जग धंधा ॥
अज्ञानवश जगत् अन्धा है !श्रीसुंदरदासजी कहते हैं - यह प्राणी पूर्णतः अन्धा(अज्ञानी) दिखायी देता है । यहाँ माता, पिता, भाई, बन्धु, स्त्री - सभी ने अपने स्वार्थ के कारण ही अपना सम्बन्ध बना रखा है - इतना भी यह नहीं जानता ।
यह इन के लिये सुकृत करता हुआ अपने कन्धों पर व्यर्थ भार बढ़ाता जा रहा है ।
अन्त में एक दिन इनसे वियोग(इन का साथ छूटना) भी हो जायगा । इसीलिए यह जगत् लेन देन का व्यापार मात्र है ॥
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