प्रथम ढाल - Class 1.41 क्रोध,मान,माया, लोभ, मिथ्या मत आत्मा को बंधने वाले राक्षस गाथा 17
Автор: Muni Shri Pranamya Sagar Ji Ke Bhakt
Загружено: 2025-11-12
Просмотров: 1740
Muni Shri Pranamya Sagar Ji Maharaj
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ओं अर्हं नमः
आइये आज की कक्षा का quick revision कर लेते हैं।
संसार के वर्णन में आज हमने जाना
पंच परावर्तन मिथ्यात्व और कषाय से युक्त होकर होते हैं।
मिथ्यात्व पाँच प्रकार का होता है
और कषाय 25 होती हैं
उसमें से प्रमुख अनन्तानुबंधी कषाय होती है।
मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषाय ने हमारी आत्मा पर कब्ज़ा किया हुआ है
और ये हमें जागने नहीं देते
कोशिश करने पर भी ये फिर से दबोच लेते हैं
और फिर से सुला देते हैं।
इन्होंने हमारी आत्मा पर अपनी सत्ता जमा रखी है।
पंच परावर्तन का वर्णन सुनते हुए हमें महसूस हुआ
कि हमारी आत्मा कहाँ है?
हमारे भाव कहाँ है?
हमारी कषायें क्या हैं?
हमारा संसार सिर्फ अपना परिवार ही नहीं है
बल्कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव सभी की अपेक्षा अनन्त है।
ऐसी कोई कषाय, ऐसे कोई भाव, ऐसी कोई मन वचन काय के योग की प्रवृतियाँ नहीं जो हमने नहीं की हो।
कर्मों की ऐसी कोई स्थितियाँ नहीं जो हमने नहीं बांधी हो।
कषाय, अनुभाग और योगों के अध्यवसाय स्थानों से कर्म की स्थितियाँ बँधती हैं।
इनकी परिणतियाँ अलग-अलग होने से स्थितियाँ और भाव भी अनेक प्रकार के हो जाते हैं।
समान रूप से बैठे और सुनते हुए भी किसी की भी कषाय समान नहीं होतीं।
अपने-अपने कर्म के उदय से कषायों के परिणाम अलग-अलग होते हैं
जिससे सबका कर्म बन्ध भी अलग-अलग होता है।
कषाय कभी भी नहीं छूटती
धर्म तब होता है जब कषाय हल्की होती हैं
लेकिन उसका सद्भाव तो बना ही रहता है
भले ही हमें पता नहीं चलता।
ये कषाय और मिथ्यात्व
मदिरा से भी ज्यादा विवेक भुला देते हैं।
मदिरा का नशा कम होते ही यदि फिर से पिला दी जाए
तो वह इन्सान कभी उठ ही नहीं पाता।
ऐसा बार-बार करते-करते विकार इतना बढ़ जाता है कि वह अपनी सुध भी नहीं ले पाता।
उसी तरह हम अनादि काल से मिथ्यात्व और कषाय का रस पीते आए हैं
इसके कारण अब कोई भी ऐसा भाव उत्पन्न नहीं होता, जिससे हम अपनी सामर्थ्य प्रकट कर पाए
और इन रसों से आसक्ति हटा पाए।
जैसे मदिरा से व्यक्ति बेहोशी में पड़ा हुआ कुछ न कुछ करता रहता है।
ऐसे ही हमें भी होश नहीं रहता कि हम कौन हैं,
हमारा क्या स्वभाव है,
हमारा इस संसार में आने का क्या उद्देश्य है।
हम बस पैसा कमाना और परिवार बनाना ही सब समझते हैं।
यह पता नहीं चलता कि हमारा क्या छूट रहा है।
मदिरा जितनी पुरानी होती है
उसके अन्दर मादकता की potency बढ़ती जाती है।
पुरानी होगी तो एक ढक्कन पीकर ही एक glass जितना नशा कर देगी।
जैसे हमने द्विपायन मुनि के वर्णन में जाना।
नेमिनाथ भगवान ने बताया था कि
जब यादव मदिरा पीकर द्विपायन मुनि पर उपसर्ग करेंगे तब उनके क्रोध से द्वारका का विनाश होगा।
तब श्री कृष्ण ने शराब, और शराब बनाने वाली सब चीज़ें बाहर वन में फिकवा दीं।
वह शराब वहाँ शिलाओं के गड्ढों में पड़ी रही।
इस कथा का अगला भाग हम कल सुनेंगे।
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