वीर बिग्गाजी महाराज धड़ देवलीधाम || bigga ji dham dhar devali || Travel Bhaiya 4
Автор: Travel Bhaiya ट्रैवल भैया
Загружено: 2023-04-10
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ये है बिग्गाजी धाम "अक्षरधाम" जैसा || वीर बिग्गाजी महाराज धड़ देवलीधाम || bigga ji dham dhar devali
राजस्थान के वर्तमान बिकानेर जिले में स्थित गाँव बिग्गा व रिड़ी में जाखड़ जाटों का भोमिचारा था और लंबे समय तक जाखड़ों का इन पर अधिकार बना रहा.बिग्गाजी का जन्म विक्रम संवत 1358 (1301) में रिड़ी में हुआ रहा. इनका गोत्र पुरुवंशी है. इस गोत्र के बड़े बड़े जत्थे दिग्विजय के लिए विदेश में गए बताये जाते हैं. ये वापिस अपनी जन्म स्थली भारतवर्ष लौट आए. इनके पिताजी का नाम राव मेहन्दजी तथा दादा जी का नाम राव लाखोजी चुहड़ था. गाँव कपूरीसर के ग्राम प्रधान चूहड़ जी गोदारा की पुत्री सुलतानी इनकी माता जी थी
बिग्गाजी जब थोड़े बड़े हुए तो इनको धनुष विद्या तथा अस्त्र-शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण दिया गया. जब वे युवा हुए तो उन्हें विशेष युद्ध लड़ने की शिक्षा दी गई. उस युग में गायों को पवित्र और पूजनीय माना जाता था. उस समय में गायों को चराना और उनकी रक्षा करना क्षत्रियों का धर्म और प्रतिष्टा मानी जाती थी.
जन्म परिचय: राव मेहन्द जी के घर उनकी सहधर्मिणी सुल्तानी, जो कपूरीसर के ग्राम प्रधान चुहड़ जी गोदारा की पुत्री थी, की कोख से विक्रम संवत 1211 चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को ब्रह्ममूर्त में वीर बिग्गाजी का जन्म हुआ. उन्हें बचपन में विजयपाल नाम से पुकारा जाता था. उनकी एक बहन हरिया बाई थी.
शिक्षा दिक्षा : वीर बिग्गाजी एक खानदानी बालक होने के कारण व पूर्व जन्म के योगिक संस्कारों से स्वत: ही सद शिक्षाओं को धारण किए हुये थे. युद्ध कौशल उन्हें उनके चाचा-ताऊओं द्वारा सिखाया वंश परंपरा अनुसार मिला था. अक्षर विद्या में उन्हें संस्कारवान तावणिया देवी मानते थे. जैसा कि प्रत्येक किसान व शूरवीर के स्वभाव में होता है वह धरती मां को पूजते थे. उस समय की प्रचलित मारवाड़ी भाषा में धरती माँ को पीथल के नाम से पूजते थे. गौ माता में विशेष श्रद्धा रखते थे.
दिनचर्या: श्री बिग्गाजी प्राय: छोटे बच्चों में न बैठकर बड़े बुजुर्गों में बैठते थे. वह समाज की समस्याओं पर चर्चा करते थे और सुनते थे. उस समय गाय और नारी जाति पर बहुत अत्याचार हो रहे थे. इन अत्याचारों की घटनाओं को सुनकर उनका खून खौल उठता था. इसके लिए कुछ कर गुजरने का भाव उनके मन में उठता रहता था. वे प्राय: ईश्वर से प्रार्थना करते कि मुझे ऐसी शक्ति दें जिससे मैं जुल्मों का सामना कर सकूं. शिक्षा के बाद वे गायों में अपना समय अधिक गुजारते. वह ध्यान अवस्था में देवी शक्तियों में मगन रहते थे. वह अश्वारोहण में बहुत माहिर थे. अपने लिए एक सफेद घोड़ी रखते थे जो हर परिस्थिति में उनका साथ देती थी.
वीरगति: पूर्व लिखित साक्ष्यों के अनुसार बिग्गा जी के ससुराल में उनके साला श्री का विवाह उत्सव था. बिग्गा जी भी उस प्रसंग में अपने सहयोगियों सावलदान पहलवान, हेमा बागढड़वा ढोली, पंडित गुमाना राम तावणिया, राधो टाकवा नाई व बाद्धो कालवा बेगारी के साथ शामिल हुये थे. बिग्गाजी भोजन करने बैठ ही थे कि उसी समय किसी अबला को सहायतार्थ वीर क्षत्रियों को पुकार लगाते हुए सुना. उसी समय वीर बिग्गाजी में शौर्य जाग उठा और कवि की उन पंक्तियों को साकार किया- भीड़ पड़या रणधीर छुपे ना वीर. बिग्गाजी के पूछने पर जाना कि किसी अबला की गायों को कोई लुटेरे ले गए. तो बिग्गाजी अपने सहयोगियों के साथ एक पल भी गमाए बिना उनका पीछा किया, उन पर जा चढ़े और उनका कम खून खराबे में गायों को छुड़ा लाये. आने पर अबला ने कहा मेरा एक बछड़ा पीछे रह गया. वीर बिग्गाजी फिर जा पहुंचे. तब तक लुटेरे संगठित हो गए थे. बिग्गा जी ने अपने आराध्य मां धरती (पीथल) को प्रणाम किया व शक्ति मांगी और दुश्मन पर टूट पड़े और लुटेरों का विनाश करने लगे. उसी समय किसी ने कुटिल नीति से बिग्गाजी पर पीछे से वार कर दिया. बिग्गा जी का शीश धड़ से अलग होते ही वीरगति को प्राप्त हो गए. घोड़ी ने शीश को जमीन पर नहीं गिरने देकर अपने मुख में पकड़ लिया. कहते हैं वीर बिग्गाजी में मां पीथल ने इतनी शक्ति भर दी जिसे अकेले धड़ ने ही युद्ध कर दुश्मनों का सर्वनाश कर दिया और बछड़े को छुडवाया.
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