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माता सीता के विवाह की अद्भुत कथा || श्री राम कथा || श्री पूज्य राजन जी shraa pujya rajan ji

Автор: Rajan Ji Maharaj Ki Katha

Загружено: 2025-12-28

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माता सीता के विवाह की अद्भुत कथा || श्री राम कथा || श्री पूज्य राजन जी shraa pujya rajan ji
मिथिला की धरती…
जनकपुर की पावन नगरी…
जहाँ हर कण में वेदों का घोष, हर हवा में आध्यात्म की सुगंध और हर हृदय में धर्म का दीप जलता था। यह वही मिथिला थी, जहाँ के राजा जनक को “विदेह” कहा जाता था—देह से परे, मोह से मुक्त, आत्म-तत्त्व में स्थित राजा।

राजा जनक की कोई संतान न थी। एक दिन जब वे यज्ञ भूमि की शुद्धि हेतु हल से धरती जोत रहे थे, तभी हल की नोक किसी दिव्य वस्तु से टकराई। राजा ने मिट्टी हटाई तो वहाँ एक सुंदर, तेजोमयी, स्वर्णिम आभा से प्रकाशित शिशु कन्या एक संदूक में लेटी हुई मिली। मानो स्वयं धरती माता ने अपने आँचल से एक दिव्य पुष्प प्रकट कर दिया हो।

जनक भावविभोर हो उठे। उन्होंने कन्या को उठाया, हृदय से लगाया और बोले—
“यह केवल मिथिला की नहीं, यह समस्त लोकों की पुत्री है।”

कन्या का नाम रखा गया—सीता,
क्योंकि वे “सीत” अर्थात हल की रेखा से प्रकट हुई थीं।

सीता बाल्यकाल से ही साधारण कन्या न थीं। उनके नेत्रों में करुणा, मुख पर शांति, वाणी में माधुर्य और आचरण में मर्यादा की दिव्यता थी। वे ऐसी प्रतीत होती थीं मानो लक्ष्मी का वैभव, सरस्वती का ज्ञान और पार्वती का तेज एक ही रूप में समाहित हो।

राजा जनक और रानी सुनयना ने उन्हें अत्यंत स्नेह से पाला। गुरुकुल के श्रेष्ठ आचार्यों से उन्हें शिक्षा दी गई—वेद, नीति, संगीत, कला, शास्त्र, गृहधर्म, राजधर्म, और सबसे ऊपर मर्यादा और सेवा का ज्ञान। लेकिन सीता को सबसे प्रिय था—भगवान शिव की भक्ति। वे प्रतिदिन नर्मदा-जल से शिव-लिंग का अभिषेक करतीं, पुष्प अर्पित करतीं और ध्यान में लीन हो जातीं।

मिथिला के राजमहल में एक अद्भुत घटना बचपन में घटी, जिसने भविष्य की दिशा संकेतित कर दी। राजमहल में शिव-धनुष रखा था—वही दिव्य धनुष जिसे स्वयं भगवान शिव ने कभी परशुराम को दिया था, और बाद में वह मिथिला में स्थापित हुआ। यह धनुष इतना भारी और तेज-पूर्ण था कि बड़े-बड़े वीर उसे हिला भी नहीं सकते थे।

एक दिन बालिका सीता खेलते-खेलते उस कक्ष में पहुँच गईं। वहाँ सेवक धनुष हटाने में असमर्थ थे। छोटी सी सीता ने सहज भाव से धनुष को एक ओर सरका दिया, जैसे कोई बालिका पुष्प की डाली हटाती हो। सेवक आश्चर्यचकित रह गए। जनक को यह बात ज्ञात हुई तो वे समझ गए—
“मेरी सीता केवल कन्या नहीं, शक्ति-स्वरूपा है।”

समय बीतता गया। सीता किशोरी हुईं तो उनका रूप अनुपम हो उठा। उनका सौंदर्य ऐसा था जो विकार नहीं, वैराग्य जगाए; जो आकर्षण नहीं, आदर उत्पन्न करे। मिथिला की प्रजा उन्हें “जगज्जननी” कहने लगी थी, यद्यपि वे अभी युवती ही थीं।

राजा जनक को अब उनकी चिंता सताने लगी—
“ऐसी कन्या के योग्य वर कौन हो सकता है?”

सीता के योग्य वही हो सकता था, जो केवल रूप का नहीं, धर्म का अधिकारी हो; केवल वीर न हो, धैर्यवान हो; केवल शक्तिशाली न हो, मर्यादित हो; केवल विजेता न हो, हृदय से विनम्र हो।

राजा जनक ने निश्चय किया कि सीता का विवाह स्वयंवर द्वारा होगा, लेकिन शर्त साधारण न होगी। उन्होंने घोषणा की—
“जो शिव-धनुष को उठाएगा, उस पर प्रत्यंचा चढ़ाएगा और धनुष की डोरी को कान तक खींचेगा, वही सीता का पति होगा।”

यह घोषणा पूरे आर्यावर्त में फैल गई। राजाओं में हलचल मच गई। कई इसे चुनौती मान बैठे, कई इसे अपमान, और कई इसे असंभव कार्य कहने लगे। लेकिन जनक अडिग थे।

स्वयंवर की तैयारियाँ आरंभ हुईं। पूरा जनकपुर सज उठा—
तोरण द्वार, स्वर्ण-कलश, रंगोली, ध्वजाएँ, वेद-पाठ, मंगल-वाद्य, सुगंधित पुष्प, दीपमालाएँ, रत्नजड़ित मंडप और विशाल सभा-भूमि। यह आयोजन केवल स्वयंवर नहीं, धर्म का उत्सव बन गया था।

उधर अयोध्या में राजकुमार राम और लक्ष्मण अपने गुरु विश्वामित्र के साथ वन-यात्रा पर थे। ताड़का वध, अहिल्या उद्धार, और कई यज्ञ-रक्षाओं के पश्चात विश्वामित्र ने कहा—
“राम, मिथिला में स्वयंवर हो रहा है। वहाँ चलना तुम्हारे भाग्य और धर्म दोनों के लिए आवश्यक है।”

राम मुस्कराए—न लोभ से, न उत्सुकता से, बल्कि गुरु-आज्ञा की पवित्रता से। वे जानते थे, गुरु का कहा कभी साधारण नहीं होता।

तीनों मिथिला पहुँचे। जनक ने उनका स्वागत किया। राम की सौम्यता और तेज से जनक प्रभावित हुए, परंतु उन्होंने स्वयंवर की शर्त नहीं बदली। क्योंकि उन्हें सीता के योग्य पति चाहिए था, न कि किसी राजा की प्रसन्नता।

स्वयंवर का दिन आया। सभा में दूर-दूर से आए राजा विराजमान थे—अंग, बंग, कलिंग, काशी, सिंध, सौराष्ट्र, मद्र, मगध, निषध, कोशल, और अनेक प्रदेशों के नरेश। सबसे पहले आए रावण के भाई विभीषण के माध्यम से लंका का संदेश, फिर बाणासुर, शिशुपाल, दुर्योधन, कर्ण, द्रुपद, कुंभकर्ण, शाल्व, सहस्त्रार्जुन के वंशज, कैकय, कंबोज, गंधार और कई शक्तिशाली राजा।

सबसे पहले रावण स्वयं आया। वह अत्यंत बलशाली था। उसने गर्व से धनुष उठाने का प्रयास किया, किंतु धनुष टस से मस न हुआ। रावण क्रोधित हुआ, पूरी शक्ति लगाई, परंतु असफल रहा। सभा में सन्नाटा छा गया। वह अपमानित होकर लौट गया।

फिर एक-एक कर सभी राजा आए।
कोई धनुष हिला न सका,
कोई उठाने में विफल रहा,
कोई उठाकर गिरा बैठा,
कोई प्रयास में ही थक गया।

सभा में निराशा फैलने लगी—
“क्या यह स्वयंवर अधूरा रह जाएगा?”

सीता शांत बैठी थीं। उनके मन में कोई चिंता न थी। क्योंकि वे जानती थीं—
“जिसका मेरे लिए जन्म हुआ है, वही इसे तोड़ेगा।”

तभी गुरु विश्वामित्र ने राम से कहा—
“वत्स, अब तुम जाओ।”

राम उठे। उनके उठने में कोई प्रदर्शन न था। जैसे सूर्य बिना घोषणा किए उगता है, जैसे चंद्रमा बिना शोर किए आकाश पर छा जाता है, वैसे ही राम उठे।

सभा की दृष्टि उन पर टिक गई।

राम धनुष के पास पहुँचे।
पहले प्रणाम किया—धनुष को, शिव को, गुरु को, और धर्म को।
फिर धनुष उठाया… सहजता से।
जैसे वह लोहे का नहीं, धर्म की डाली हो।

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