अपनों को खोने की पीड़ा, क्या करें? || आचार्य प्रशांत (2024)
Автор: आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant
Загружено: 2024-03-05
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वीडियो जानकारी: 25.02.24, संत सरिता, ग्रेटर नॉएडा
अपनों को खोने की पीड़ा, क्या करें? || आचार्य प्रशांत (2024)
📋 Video Chapters:
0:00 - Intro
3:10 - कर्तव्य की भावना और दुनिया के प्रति समर्पण
8:33 - खालीपन की भावना और नई दिशा की खोज
15:26 - दुख से उबरना और जिम्मेदारियों का विस्तार
18:28 - कबीर साहब के दोहे और भजन
30:35 - समापन
विवरण:
इस वीडियो में एक महिला अपने जीवन के कठिन अनुभवों को साझा करती है, जिसमें उसके बेटे की मृत्यु और उसके बाद के भावनात्मक संघर्ष शामिल हैं। वह आचार्य जी से मार्गदर्शन की अपेक्षा करती है, क्योंकि उसे अपने जीवन का उद्देश्य और दिशा नहीं मिल रही है। आचार्य जी उसे समझाते हैं कि उसके पास अभी भी ताकत और सामर्थ्य है, और उसे अपनी देखभाल करने की जिम्मेदारी को विस्तारित करना चाहिए। वे उसे प्रेरित करते हैं कि वह अपने अनुभवों का उपयोग करके दूसरों की मदद करे और अपने खालीपन को एक नई जिम्मेदारी में बदल दे। आचार्य जी का संदेश है कि दुख के बावजूद, जीवन में नई संभावनाएं और जिम्मेदारियां हमेशा मौजूद होती हैं।
प्रसंग:
~ अपनों को खोने के दु:ख को कैसे दूर करें?
~ जब कोई अपना दूर हो जाए तो क्या करें?
~ अपनों को खोने का दु:ख बर्दाश्त नहीं होता।
~ मृत्यु और जीवन की घटना को कैसे समझें?
काल काल सब कोई कहे, काल न जाने कोय।
जेती मन की कल्पना, काल कहावे सोय।।
बैद मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार।
एक कबीरा ना मुआ, जाके राम आधार।।
पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय|
अब के बिछुड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जाय ||
वृक्ष बोला पात से, सुन पत्ते मेरी बात।
इस घर की ये रीति है, एक आवत एक जात ।।
चले गए सो ना मिले, किसको पूछूँ बात।
मात पिता सुत बाँधवा, झूठा सब संघात।
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार।
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।।
जिस मरनी से जग डरे, मेरो मन आनंद।
कब मरिहों कब भेटीहो, पूरण परमानंद।।
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद ।
जगत चबैना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद।।
माया मरी न मन मरा , मर -मर गए शरीर,
आशा तृष्णा न मरी ,कह गए दास कबीर।
गगन दमामा बाजिया, पड़े निसाने घाव।
खेत बुहारे सूरमा, मोहे मरण का चाव।।
अपना तो कोई नहीं, हम काहू के नाँहि।
पार पहुँची नाव जब, मिलि सब बिछुड़े जाँहि।।
अपना तो कोई नहीं, देखा ठोकि बजाय।
अपना अपना क्या करै, मोह भरम लपटाय।।
देह धरे का दंड है सब काहू को होय।
ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय॥
सुखिया ढूँढ़त मैं फिरूँ, सुखिया मिलै न कोय ।
जाके आगे दु:ख कहूँ, पहिले ऊठै रोय ।।
जब से मैंने जन्म लिया, कभी न पाया सुख।
द्वार द्वार मैं फिरा, पाते पाते दु:ख।
संगीत: मिलिंद दाते
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