“राग में डूबी पुकार: कान्हा मोहे जाने दे”
Автор: छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया
Загружено: 2025-11-26
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यह रचना एक विलंबित आलाप से शुरू होकर शुद्ध विरह-भाव में डूबी हुई स्त्री-स्वर की पुकार है।
स्वर धीरे-धीरे सा से तार सप्तक तक उठते हैं—जहाँ हर “आ…”, “ओ…” और “कान्हा…” मन के दर्द, समर्पण को व्यक्त करता है।
बंध और आलाप में “मोहे… जाने दे…” बार-बार लौटता है, जैसे प्रेम और विरह का अनंत चक्र।
अंतरे का विस्तार एक स्त्री के दिल की वह पुकार है जो प्रेम और मुक्ति के बीच अटकी हुई है।
अंत में तिहाई—“जाने दे… जाने दे… जाने दे”-इस पूरे भाव को सम पर बाँधकर समाप्त करती है।
पूरी रचना एक शास्त्रीय, रागात्मक, आध्यात्मिक और अत्यंत भावनात्मक यात्रा है।
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