SATU AANTHU II CHANDANI ENTERPRISES II KHUSHI JOSHI II GOVIND NEGI II 2025 II DOCUMENTRY II
Автор: CHANDANI ENTERPRISES
Загружено: 2025-08-28
Просмотров: 18779
Title - SATU AANTHU
Voice - R J KAVYA & KHUSHI JOSHI
Music - GOVIND DIGARI
Lyrics - TRADITIONAL ARRANGED BY LAXMAN MANOLA SIR
DOP - GOVIND NEGI & AKAY
Production Team - SOHAN CHAUHAN SHAILENDRA PATWAL PRAKASH BORA
Radio Partner - OHO RADIO UTTRAKHAND
Label - CHANDANI ENTERPRISES
Editor - GOVIND NEGI
Production - PAHADI DAGADIYA DEHRADUN
Recording Studio - VAIDEHI RECORDING STUDIO HALDWANI
Shooting Point - VILLAGE AJERA NIMATHI GHIMALI OF DIDIHAT BLOCK
Special Thanks - ALL VILLAGERS OF VILLAGE AJERA & NIMATHI BLOCK DIDIHAT DISTT PITHORAGARH / HOTEL KUMAON DIDIHAT / ANAND BORA MY PITHORAGARH TEAM OWNER
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सातूं-आठों (Satu-Aathu) एक लोकप्रिय लोकपर्व है, खासकर उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में, जिसमें डिडिहाट भी शामिल है.
यह पर्व मुख्य रूप से भगवान शिव (महेश) और देवी पार्वती (गौरा या गंवरा) के बीच के रिश्ते और उनकी मायके यात्रा से जुड़ा है.
यहां सातूं-आठों के बारे में कुछ मुख्य बातें दी गई हैं:
सप्तमी और अष्टमी का त्यौहार: सातूं का अर्थ सप्तमी और आठों का अर्थ अष्टमी है. यह पर्व भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी और अष्टमी को मनाया जाता है.
बिरुड़ पंचमी से शुरुआत: इस पर्व की शुरुआत बिरुड़ पंचमी से होती है, जिसमें पांच या सात प्रकार के अनाजों को एक तांबे के बर्तन में भिगोया जाता है.
गौरा और महेश की पूजा: सप्तमी के दिन देवी गौरा की पूजा की जाती है और अष्टमी के दिन भगवान शिव (महेश) की पूजा की जाती है.
मूर्ति निर्माण: मक्का, तिल, बाजरा आदि के पौधों से गौरा-महेश की मूर्तियां बनाई जाती हैं और उन्हें सुंदर वस्त्र पहनाकर पूजा की जाती है.
पौराणिक कथा: मान्यता है कि जब देवी गौरा अपने पति महादेव से नाराज होकर अपने मायके कुमाऊं आ जाती हैं, तब महादेव उन्हें मनाने और वापस ससुराल ले जाने आते हैं. यह त्यौहार इसी विदाई और मिलन की यात्रा को दर्शाता है.
अनुष्ठान और परंपराएं: महिलाएं इस दिन उपवास रखती हैं. बिरुड़ों से गौरा और महेश की पूजा की जाती है और उन्हें प्रसाद के रूप में भी खाया जाता है. झोड़ा-चाचरी गाते हुए गौरा-महेश के प्रतीकों को नचाया जाता है.
विदाई समारोह: अष्टमी की सुबह बिरुड़ चढ़ाए जाते हैं और फिर गीत गाते हुए मां गौरा को ससुराल के लिए विदा किया जाता है, जैसे बेटी की विदाई होती है. मूर्तियों को स्थानीय मंदिर या जल स्रोत में विसर्जित किया जाता है.
वैज्ञानिक महत्व: इस पर्व का वैज्ञानिक महत्व भी है, क्योंकि अंकुरित अनाजों को प्रसाद स्वरूप खाया जाता है.
संक्षेप में, सातूं-आठों एक ऐसा त्यौहार है जो भगवान शिव और देवी पार्वती के रिश्ते को समर्पित है, जिसमें उनके मायके जाने और ससुराल लौटने की कथा को भक्ति और उत्साह के साथ मनाया जाता है.
बिरुड़-पंचमी - इस दिन एक साफ तांबे के बर्तन में पांच या सात अनाजों को भिगोकर मंदिर के समीप रखा जाता है. भिगो कर रखे जाने वाले अनाजों में मक्का, गेहूं, गहत, ग्रूस (गुरुस), चना, मटर व कलों होता है. सबसे पहले तांबे या पीतल का एक साफ बर्तन लिया जाता है. उसके चारों ओर गोबर से छोटी-छोटी नौ या ग्यारह आकृतियां बनाई जाती हैं, जिसके बीच में दूब की घास लगाई जाती है. जो घर मिट्टी के होते हैं वहां मंदिर के आस-पास सफाई कर लाल मिट्टी से लिपाई की जाती है और मंदिर के समीप ही बर्तन को रखा जाता है.
सातों के दिन बिरुड़ों से गमारा (गौरा) की पूजा की जाती है और आठों के दिन बिरुड़ों से महेश (शिव) की पूजा की जाती है.
सप्तमी के दिन जिसको यहाँ सातों कहा जाता है दोपहर को महिलाएं नौले या धारे (पानी के श्रोत) पर पंचमी को भिगाए गए बिरुडों को धोती हैं, धोने से पहले नौले या धारे पर पांच जगह टीका लगाया जाता है और शुभ गीत भी गाये जाते हैं. बिरुड़े धोकर वापस भिगोकर रख दिये जाते हैं और उसमें से गेहूं की पोटली निकालकर गमरा की पूजा के लिए लेकर जाते हैं. पोटली वाले गेहूं के साथ-साथ फूल, कुछ फल और अन्य पूजा कि सामग्री भी रखी जाती है. सभी महिलाएं गमारों का श्रृंगार करती हैं और फिर पंडित जी आकर पूजा करवाते हैं. पूजा के बाद महिलाएं गाने गाती हैं और नृत्य भी करती हैं.
अष्टमी को भी सभी महिलायें इकठ्ठा होती हैं और पूजा करती हैं, पंडित जी द्वारा पूजा कराये जाने के बाद इस दिन कोई एक महिला सातों-आठों कि कथा (कहानी) सुनाती है,
अष्टमी (आठों) के दिन पूजा में रखी गेहूं की पोटली को खोलते हैं गौरा महेश को चढ़ाने के साथ-साथ उसको वहाँ उपस्थित महिलाएं एक दूसरे के सिर में भी चढ़ाती हैं और फिर घर भी लेकर आती हैं, घर में भी सभी परिवार के सदस्यों को ये बिरुड़े चढ़ाये जाते हैं . और बाकी भिगाए हुए जो बिरुड़े होते हैं उनको पकाकर खाया जाता है और आस- पड़ोस के परिवार भी एक दूसरे को बिरुड़े बांटते हैं .
पूजा के दौरान ही महिलाएं गले में दूर बांधती हैं, कहा जाता है कि बच्चे ने अपनी मां के गले कि जो डोर पकड़ ली थी उसके बाद से ही सातों और आठों में पूजा करने वाली महिलाएं गले और हाथ में वह डोर बांधती हैं.
आठों के दिन कई इलाकों में मेले भी होते हैं जिनमें विभिन्न प्रकार की दुकानें तो लगती ही हैं साथ ही उत्तराखंड के लोकगीत भी गाये जाते हैं.
आठों के बाद गौरा और महेश्वर कुछ दिन तक उसी घर में रहते हैं जहाँ इनकी पूजा की जाती है, फिर सभी गाँव वाले मिलकर कोई एक दिन तय करते हैं और गाने -बाजे के साथ धूमधाम से नजदीक के मंदिर में उनको पहुचाकर आते हैं, इसे गंवार सिवाना कहा जाता है. मंदिर में भी नाच – गाने होते हैं और इस तरह अगले साल फिर गौरा महेश्वर के वापस लौटने कि कामना की जाती है.
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