डॉ. श्यामसुन्दर दुबे | साक्षात्कार | भाग-०१
Автор: Sanjay Dwivedi Originals
Загружено: 2023-04-27
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'लोक' डॉ. श्यामसुन्दर दुबे के रचना-धर्म के मूल में है। जिन्हें बुंदेली लोक-कला, लोकगीत, लोक-साहित्य आदि से प्रेम हो, उन्हें आदरणीय दुबे जी के साहित्य को पढ़ना-गुनना चाहिए। बहुत निकट से मैंने आपके भीतर अरण्यानी, ग्राम-देवता और लोक संवेदनाओं को सांस लेते देखा है। आपके साहित्य में हल जोतते किसान और तप्त चूल्हे के धुएँ में सराबोर, कलेवा और ब्यारी बनाती माँ और बहनों के पसीने से झरते लोकगीतों की अनुगूँज व्याप्त है।
मेरी जन्मभूमि बुन्देलखण्ड, मध्यप्रदेश के गौरव, मेरे ही नहीं अपितु मेरे पिता के भी गुरुकल्प, प्रख्यात कवि, कथाकार, ललित निबंधकार, लोक के व्याख्याकार-उद्गाता, समीक्षक तथा अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से अलंकृत आदरणीय डॉ. श्यामसुन्दर दुबे जी का यह साक्षात्कार आज से लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व मेरे द्वारा लिया गया था। और मैंने उनसे कहा था कि मैं इसे आराम से संपादित करूँगा क्योंकि यह समय-साध्य कार्य है। उन्होंने दोबारा कभी नहीं पूछा कि साक्षात्कार कब प्रसारित होगा। यह उनका ही विश्वास है कि समय, जीवन और नियति की उठा-पटक के बाद अब यह कार्य संभव हो रहा है।
कोरोना रूपी विभीषिका में जब भारत माता के अनेक लाड़ले सपूत जब काल-कवलित होते जा रहे थे, तब मेरे भीतर यह व्यग्रता बढ़ती जा रही थी कि जिन्हें मैं अपना गुरु, आदर्श अथवा प्रेरक मानता हूँ; वे सब तो धीरे-धीरे चले जा रहे हैं। उनमें से बहुतों से तो मैं मिल भी ना सका। उनके लिए कुछ कर भी ना सका। क्योंकि मैं स्वयं को हर उस व्यक्तित्व का ऋणी हूँ, जिनसे मैंने कुछ न कुछ सीखा है। हम अपने पूर्वजों से बस लेते रहते हैं। उन्हें देना तो जानते ही नहीं।
जब मेरी व्याकुलता बढ़ती जा रही थी, तब मुझे सबसे पहले अपने आस-पास जो लिविंग लीजेंड दिखाई दिये, उनमें से एक थे - आदरणीय डॉ. श्यामसुन्दर दुबे। जिनके लिए मैं कुछ कर सकता था। कोरोना के बाद समय पाते ही घर गया और लगभग सप्ताह भर आदरणीय डॉ. श्यामसुन्दर दुबे जी का सानिध्य प्राप्त किया। ढेर सारी कविताएँ, गीत, कथा और वार्ता … और अंत में एक लंबा साक्षात्कार रिकॉर्ड करने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। वे इतने सहज हैं कि आप उनसे कभी भी अपनी जिज्ञासा का समाधान कर सकते हैं। प्रश्नों के उत्तर पा सकते हैं, एकदम सटीक उत्तर। आप उनके साथ खिलखिलाकर हँस सकते हैं। वे गंभीर हैं, परन्तु अपने अध्यवसाय के प्रति। हम-आप के मध्य तो उनका सहज, रस-सिक्त और प्रेम निमज्जित स्वभाव ही परिलक्षित होता है। वे कविता ऐसे सुनाते हैं, जैसे कोई निश्छल बालक। वे इतने छोटे हो जाते हैं कि आप स्वयं को उस कमरे या देहलान के उस पूरे परिवेश में व्याप्त पाते हैं। सचमुच, बहुत कम ही मैं इतने बड़े आदमी से मिला हूँ। हाँ, सन्तपुरुषों की बात और है। वे भगवत्ता से परिपूर्ण होते हैं। अन्यथा आज हम किसी बड़े आदमी से मिलते हैं, और मिलकर जब लौटते हैं, ख़ुद को बहुत बौना महसूस करते हैं। इसी कारण आज तक मैं किसी नेता या मंत्री से स्वेच्छा से कभी नहीं मिला। क्योंकि उन्हें यही लगता है कि उनसे मिलने वाला हर व्यक्ति कुछ माँगने ही आया है। वे यह भूल जाते हैं कि कुछ लोग देने भी आते हैं; पर अफ़सोस कि वे उनसे कुछ ले नहीं पाते। समाज में असल दाता तो सन्त, शिक्षक, कवि, साहित्यकार, कलाकार, चिकित्सक, वैज्ञानिक और किसी भी विषय के अधिकारी विद्वान् ही हैं। नेता तो बस उनके मैनेजर हैं। राष्ट्र को जब जहाँ जिस प्रतिभा की आवश्यकता हो; वे उसे व्यवस्थित कर सकें।
बात लंबी हो गई … कहने अवसर कभी- कभी मिल पाता है। किसी ना किसी व्याज से अपनी बात कह देना चाहिए।
नोट - वीडियो में पक्षियों का कलरव, वायु-प्रवाह की ध्वनि, मंदिर की आरती कि ध्वनि को यथावत रखा गया है क्योंकि डॉ दुबे जी और मेरे जीवन के ये अभिन्न अंग हैं।
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