श्री हरि स्तोत्रम् | Shree Hari Stotram | Vishnu Mantra | Lyrical Sanskrit Mantra
Автор: Divya Vvani
Загружено: 2025-09-01
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"जब हम किसी स्तोत्र का अर्थ अपनी भाषा में समझते हैं, तभी उसका जप वास्तव में शक्तिशाली और कल्याणकारी बनता है। अर्थ जानने से श्लोक केवल ध्वनि न रहकर हमारे हृदय और अंतरमन को स्पर्श करते हैं। श्री हरि स्तोत्र का नियमित पाठ, जब भाव और समझ के साथ किया जाता है, तो यह शांति, स्पष्टता और भगवान विष्णु की रक्षा एवं आनंदमयी शक्ति से गहरा जुड़ाव प्रदान करता है।"
🕉️ 1
जगज्जालपालं चलत्कण्ठमालं शरच्चन्द्रभालं महादैत्यकालंनभोनीलकायं दुरावारमायं सुपद्मासहायम् भजेऽहं भजेऽहं ॥१॥
🌸 भावार्थ
मैं उस भगवान विष्णु की वंदना करता हूँ, जो सम्पूर्ण सृष्टि का पालन करते हैं,जिनके गले में सुन्दर हार झूल रहा है।जिनके मस्तक पर शरद ऋतु के चन्द्रमा जैसी उज्ज्वल आभा है,जो महादैत्यों का संहार करने वाले हैं।जिनका शरीर नभ के समान गहरा नीला है, जिनकी माया अजेय और अगम्य है,और जिनकी अर्धांगिनी सदा लक्ष्मीजी हैं।
🕉️ 2
सदाम्भोधिवासं गलत्पुष्पहासं जगत्सन्निवासं शतादित्यभासंगदाचक्रशस्त्रं लसत्पीतवस्त्रं हसच्चारुवक्त्रं भजेऽहं भजेऽहं ॥२॥
🌸भावार्थ
मैं उस भगवान विष्णु की वंदना करता हूँ, जो सदा क्षीरसागर में निवास करते हैं,जिनकी मुस्कान खिले हुए पुष्प के समान मनोहर है,जो सम्पूर्ण जगत का आधार और निवास-स्थान हैं,जिनकी आभा सैकड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी है।जिनके हाथों में गदा और चक्र शोभायमान हैं,जिनके शरीर पर पीताम्बर (पीले वस्त्र) झिलमिला रहे हैं,और जिनका मुख सदैव मधुर एवं मनोहर मुस्कान से चमकता रहता है।
🕉️ 3
रमाकण्ठहारं श्रुतिव्रातसारं जलान्तर्विहारं धराभारहारंचिदानन्दरूपं मनोज्ञस्वरूपं ध्रुतानेकरूपं भजेऽहं भजेऽहं ॥३॥
🌸 भावार्थ
मैं उस भगवान विष्णु की वंदना करता हूँ, जो लक्ष्मीजी के प्रियतम हैं,जो सम्पूर्ण वेदों का सार हैं,जो क्षीरसागर में विहार करते हैं,और जो अवतार लेकर पृथ्वी का भार उतारते हैं।जो चिदानन्द (चेतना और आनंद) स्वरूप हैं,जिनका रूप अत्यंत मनोहर और आकर्षक है,और जो लोककल्याण के लिए अनेक दिव्य रूप धारण करते हैं।
🕉️ 4
जराजन्महीनं परानन्दपीनं समाधानलीनं सदैवानवीनंजगज्जन्महेतुं सुरानीककेतुं त्रिलोकैकसेतुं भजेऽहं भजेऽहं ॥४॥
🌸 Meaning in English
मैं उस भगवान विष्णु की वंदना करता हूँ, जो जन्म और बुढ़ापे से रहित हैं,जो परम आनन्द से परिपूर्ण हैं,जो सदा समाधि और शांति में लीन रहते हैं,और जो सदैव नित-नवीन, यौवनमय हैं।जो सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति के कारण हैं,जो देवताओं के ध्वज और गौरव हैं,और जो तीनों लोकों (भूः, भुवः, स्वः) को जोड़ने वाले दिव्य सेतु हैं।
🕉️ 5
कृताम्नायगानं खगाधीशयानं विमुक्तेर्निदानं हरारातिमानंस्वभक्तानुकूलं जगद्वृक्षमूलं निरस्तार्तशूलं भजेऽहं भजेऽहं ॥५॥
🌸 भावार्थ
मैं उस भगवान विष्णु की वंदना करता हूँ, जिनकी स्तुति वेदों के पवित्र मन्त्रों द्वारा की जाती है,जो गरुड़राज (पक्षीराज) पर विराजमान रहते हैं,जो मोक्ष का मूल कारण हैं,और जो भगवान शिव के शत्रुओं का नाश करने वाले हैं।जो सदैव अपने भक्तों पर कृपा करने वाले हैं,जो सम्पूर्ण जगत रूपी वृक्ष की जड़ हैं,और जो दुखी जीवों के क्लेशों को हरने वाले हैं।
🕉️ 6
समस्तामरेशं द्विरेफाभकेशं जगद्विम्बलेशं ह्रुदाकाशदेशंसदा दिव्यदेहं विमुक्ताखिलेहं सुवैकुण्ठगेहं भजेऽहं भजेऽहं ॥६॥
🌸 भावार्थ
मैं उस भगवान विष्णु की वंदना करता हूँ, जो सभी देवताओं के स्वामी हैं,जिनके सुंदर केशों में मधुर सुगंध से आकर्षित भ्रमर (मधुमक्खियाँ/भौंरे) गुंजार करते हैं,जो सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं,और जो हृदय के आकाश में निवास करते हैं।जिनका शरीर सदा दिव्य और निर्मल है,जो सभी दोषों और बंधनों से रहित हैं,और जिनका सर्वोच्च धाम वैकुण्ठ है।
🕉️ 7
सुरालिबलिष्ठं त्रिलोकीवरिष्ठं गुरूणां गरिष्ठं स्वरूपैकनिष्ठंसदा युद्धधीरं महावीरवीरं महाम्भोधितीरं भजेऽहं भजेऽहं ॥७॥
🌸 भावार्थ
मैं उस भगवान विष्णु की वंदना करता हूँ, जो देवताओं की सेनाओं से भी अधिक बलवान हैं,जो तीनों लोकों में श्रेष्ठतम हैं,जो समस्त गुरुजनों में भी श्रेष्ठ हैं,और जो सदा अपने स्वरूप में स्थित रहते हैं।जो युद्धों में सदैव धैर्यवान और वीर रहते हैं,जो महावीरों में भी परम वीर हैं,और जो इस अनंत सृष्टि-सागर के तट (सभी जीवों के आश्रय) हैं।
🕉️ 8
रमावामभागं तलानग्रनागं कृताधीनयागं गतारागरागंमुनीन्द्रैः सुगीतं सुरैः संपरीतं गुणौधैरतीतं भजेऽहं भजेऽहं ॥८॥
🌸 भावार्थ
मैं उस भगवान विष्णु की वंदना करता हूँ, जिनके वाम भाग में श्री लक्ष्मीजी विराजमान हैं,जिन्होंने पाताल के महान नाग को वश में किया,जो यज्ञों और महान अनुष्ठानों में पूजित होते हैं,और जो राग-द्वेष से रहित हैं।जिनकी स्तुति महान ऋषि-मुनि करते हैं,जो देवताओं से घिरे रहते हैं,और जो गुणों के असीम भंडार से भी परे हैं।
🕉️ ॥ फलश्रुति ॥इदं यस्तु नित्यं समाधाय चित्तं पठेदष्टकं कण्ठहारम् मुरारेःस विष्णोर्विशोकं ध्रुवं याति लोकं जराजन्मशोकं पुनर्विन्दते नो ॥९॥।
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