ठाकुर जी की बंशी का 700 साल पुराना श्राप आखिर साधु ने क्यों दिया वंशी को श्राप ||
Автор: Indresh Bhakti path
Загружено: 2025-09-10
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ठाकुर जी की बंशी का 700 साल पुराना श्राप आखिर साधु ने क्यों दिया वंशी को श्राप || #katha #thakurji
श्रीकृष्ण की वंशी का 700 साल पुराना श्राप
वृन्दावन की हर एक गली और हर एक घर में श्रीकृष्ण की वंशी की धुन गूंजती थी। लेकिन एक रात, वह धुन अचानक बंद हो गई, और उसकी जगह एक अजीब, भयानक खामोशी ने ले ली। कोई नहीं जानता था कि यह खामोशी क्यों थी, और न ही कोई इसकी वजह जान सकता था।
वृन्दावन, जहाँ श्रीकृष्ण ने अपने बचपन के दिन बिताए थे, वह हमेशा से एक खुशहाल और जीवंत जगह थी। लेकिन एक शाम, एक रहस्यमयी घटना ने पूरे गाँव को बेचैन कर दिया। एक रहस्यमयी वंशीवादक गाँव में आया, और उसने अपनी वंशी से ऐसी धुन बजाई, जो किसी ने कभी नहीं सुनी थी। उस धुन में एक अजीब सी उदासी थी, जो लोगों को डरा रही थी।
अगले दिन, गाँव में एक अजीब सी बीमारी फैल गई। जो भी उस वंशी की धुन सुनता था, वह अपनी याददाश्त खो देता था। लोग अपने ही परिवार के सदस्यों को पहचानने में असमर्थ थे। गाँव में डरऔर भ्रम की स्थिति पैदा हो गई।
जब यह खबर श्रीकृष्ण तक पहुंची, तो वे चिंतित हो गए। उन्होंने अपने प्रिय मित्र उद्धव को बुलाया और कहा, "उद्धव, यह कोई साधारण बीमारी नहीं है। यह कोई रहस्यमयी शक्ति है, जो गाँव के लोगों को उनके बचपन की यादों से दूर कर रही है।"
उद्धव ने श्रीकृष्ण से कहा, "प्रभु, हमें इस रहस्यमयी वंशीवादक को ढूंढना चाहिए।"
श्रीकृष्ण ने कहा, "नहीं, उद्धव। हमें पहले इस रहस्यमयी वंशीवादक को समझना होगा। हमें यह जानना होगा कि वह ऐसा क्यों कर रहा है।"
उसी रात, श्रीकृष्ण ने अपने वंशी को उठाया और अपनी मधुर धुन बजाई। उनकी धुन में ऐसी शक्ति थी, जो लोगों को उनके बचपन की यादों से जोड़ती थी। लेकिन जैसे ही उन्होंने अपनी धुन बजाई, रहस्यमयी वंशीवादक ने अपनी धुन को और भी तेज कर दिया, और दोनों ध्वनियाँ आपस में टकराने लगीं। यह एक ऐसा युद्ध था, जो दो अलग-अलग शक्तियों के बीच था। एक शक्ति जो लोगों को उनकी यादों से जोड़ना चाहती थी, और दूसरी जो उन्हें उनकी यादों से दूर करना चाहती थी।
जब दोनों ध्वनियाँ आपस में टकराने लगीं, तो एक भयानक तूफान आया, और वृन्दावन का पूरा माहौल बदल गया। लोग भयभीत हो गए, और उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि आगे क्या होगा।
अगले दिन, गाँव के लोगों ने देखा कि रहस्यमयी वंशीवादक एक बूढ़े आदमी का रूप लेकर एक पेड़ के नीचे बैठा है। उसके हाथों में एक वंशी थी, जो टूट चुकी थी। जब लोगों ने उससे पूछा कि वह कौन है, तो उसने कोई जवाब नहीं दिया। वह सिर्फ एक ही बात कहता रहा, "यह मेरा प्रतिशोध है।"
श्रीकृष्ण ने उस बूढ़े आदमी के पास गए और कहा, "आप कौन हैं, और आप हमसे क्या चाहते हैं?"
बूढ़े आदमी ने अपनी आँखों में एक अजीब सी चमक लिए कहा, "मेरा नाम अनिरुद्ध है, और मैं 700 साल पहले इसी वृन्दावन में रहता था। मैं एक महान वंशीवादक था, जिसकी धुन सुनकर लोग मंत्रमुग्ध हो जाते थे। पर एक दिन, एक ऋषि ने अपनी तपस्या भंग होने पर मुझे श्राप दिया कि मेरी वंशी की धुन धीरे-धीरे लोगों की याददाश्त छीन लेगी। मेरी वंशी की हर धुन में मेरा दुख, मेरा अपमान और मेरा क्रोध भर गया। मैं अपनी वंशी का श्राप दूर करने के लिए भटकता रहा, पर अंततः मुझे अपनी हार स्वीकार करनी पड़ी।"
श्रीकृष्ण ने उसकी बात सुनकर सिर हिलाया और कहा, "अनिरुद्ध, तुम श्राप से नहीं, बल्कि अपनी निराशा और क्रोध से हारे हो। तुम अपनी वंशी के श्राप को तो नहीं हटा पाए, पर तुमने अपने हृदय के श्राप को बढ़ा लिया। तुमने अपनी धुन को दुख का माध्यम बना दिया।"
श्रीकृष्ण ने अपनी वंशी को उठाया और एक अद्भुत धुन बजाई। यह धुन किसी युद्ध की नहीं थी, बल्कि प्रेम, क्षमा और शांति की थी। इस धुन ने अनिरुद्ध के हृदय को छू लिया। उसकी आँखों से सालों का दबा हुआ दर्द आँसुओं के रूप में बह निकला। जैसे ही उसके आँसू धरती पर गिरे, उसकी टूटी हुई वंशी से एक स्वर्णिम प्रकाश निकला और वह ठीक हो गई।
अनिरुद्ध ने अपनी वंशी को उठाया और श्रीकृष्ण को धन्यवाद दिया। वह समझ गया था कि असली शक्ति वंशी में नहीं, बल्कि उसे बजाने वाले के हृदय में होती है। श्रीकृष्ण ने कहा, "यह श्राप 700 साल पुराना नहीं था, बल्कि यह तुम्हारे दिल का श्राप था जो तुमने इतने सालों से पाला था। जब तुमने अपने क्रोध और निराशा को त्यागा, तो तुम्हारा श्राप भी खत्म हो गया।"
वह बूढ़ा वंशीवादक, अनिरुद्ध, मुस्कुराया और उसकी आँखों में शांति दिखाई दी। उसने अपनी वंशी को फिर से बजाया, लेकिन इस बार उसकी धुन में दुख नहीं, बल्कि प्रेम और शांति थी। गाँव के लोग अपनी याददाश्त वापस पा गए, और वृन्दावन में फिर से वही खुशहाली लौट आई।
यह कहानी हमें सिखाती है कि हमारे जीवन में आने वाली हर मुश्किल, हर बाधा या हर श्राप का मूल कारण हमारे अंदर का क्रोध, ईर्ष्या या निराशा होती है। जब हम अपने भीतर की बुराइयों को त्याग देते हैं और प्रेम व क्षमा को अपनाते हैं, तो सबसे बड़े श्राप भी खत्म हो जाते हैं। असली शक्ति हमारे कर्मों और हमारे हृदय की पवित्रता में छिपी है।
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