विहितसेन और तेजोवती की कथा
Автор: धर्म की बात
Загружено: 2025-12-10
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विहितसेन और तेजोवती की कथा
हे राजन्! यदि तुमने यह कथा न सुनी हो तो सुनो। भू-लोक में लक्ष्मी के निवास भवन के समान तिमिरा नाम की समृद्ध नगरी है। उसमें विहितसेन नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी तेजस्वती भूतल की अप्सरा थी। उसके कंठालिंगन में संलग्न-हृदय वह राजा, अपने शरीर पर कुरते का आवरण भी सहन नहीं करता था।
एक बार राजा को जीर्ण ज्वर हुआ। वैद्यों ने उस रानी के साथ मिलने से मना कर दिया। देवी के सम्पर्क से रहित उस राजा का रोग, भीतर-ही-भीतर बढ़ने लगा; जो औषधियों के उपचार से असाध्य हो गया। 'भय, शोक या अभिघात से सम्भव है, राजा का रोग अच्छा हो सके'- ऐसा वैद्यों ने एकान्त में मन्त्रियों से कहा।
मन्त्रियों ने सोचा कि राजा अत्यन्त जीवट वाला है, एक बार पीठ पर भीषण सर्प के गिरने पर और शत्रुओं के रनिवास तक घुस आने पर भी, जो न डरा, उसे किस प्रकार डराया जा सकता है। इसके लिए कोई उपाय नहीं सूझता। हमारी बुद्धि काम नहीं करती।
इस प्रकार सोच-विचार कर मन्त्रियों ने रानी के साथ परामर्श करके और उसे कपड़े से ढककर राजा से कह दिया कि 'महारानी मर गई।' इस भीषण शोक-संवाद से राजा का हृदय मथित और व्यथित हो गया और शोक-विह्वल राजा का हृदय रोग नष्ट हो गया।
उस रोग-रूपी विपत्ति से छूट जाने पर मन्त्रियों ने दूसरी सुख-सम्पत्ति के समान महारानी को राजा के लिए भेंट कर दिया। उस प्राणदायिनी रानी को राजा बहुत मानने लगा और बुद्धिमान् राजा ने, छिपी हुई रानी पर क्रोध भी नहीं किया।
नीति की व्याख्या
पति की हितैषिता ही महारानीपन है केवल राजा को प्रसन्न रखना ही रानीपन नहीं है। मन्त्रिपन भी वही है - राज-कार्य की समुचित चिन्ता रखना। राजा की 'हाँ में हाँ' मिलाना तो केवल नौकरी-मात्र है। इसीलिए विरोधी मगधराज से सन्धि करने तथा समस्त पृथ्वी पर विजय करने के लिए हमलोगों ने, यह यत्न किया।
अतः आपकी भक्ति के कारण असह्य वियोग को सहन करनेवाली महारानी वासवदत्ता ने अपराध नहीं किया; प्रत्युत पूर्ण उपकार ही किया।
वत्सराज का प्रतिक्रिया और मगधराज का संदेश
प्रधान मन्त्री के वचन सुनकर वत्सराज ने अपने को अपराधी समझा और इस घटना पर सन्तोष प्रकट किया और कहा --'आपलोगों से प्रेरित मूर्तिमती नीति के समान महारानी ने मुझे सारी पृथ्वी प्रदान की। मैंने जो कुछ कहा, वह प्रेम के अतिशय के कारण कहा – प्रेम से अन्धे हृदयवाले लोगों में विचार करने की शक्ति कहाँ हो सकती है?'
इस प्रकार वत्सराज ने महारानी की लज्जा और उस दिन को एक साथ ही समाप्त कर दिया।
दूसरे ही दिन, समाचार जानकर मगध-नरेश ने दूत भेजा। उसने वत्सराज से उसका सन्देश कहा कि तुम्हारे मन्त्रियों ने हमें धोखा दिया। इसलिए ऐसा न करना कि हमारा संसार शोक-मय हो जाय।
यह सुनकर वत्सराज ने उस दूत को पद्मावती के पास भेज दिया। वासवदत्ता के सन्मुख नम्रता प्रकट करती हुई पद्मावती ने भी उसी के पास आकर सन्देश सुनाने के लिए उस दूत को दर्शन दिया। नम्रता ही सती स्त्रियों का व्रत है।
पद्मावती का जवाब
दूत ने राजा का संदेश कहा- 'बेटी! छल-कपट से वत्सराज, तुम्हें विवाह करके ले गये, तुम्हारा पति, दूसरी स्त्री में अधिक अनुराग रखता है। इस शोक से मैंने कन्या के पिता होने का फल पा लिया।'
इस प्रकार पिता का सन्देश सुनाते हुए दूत से पद्मावती ने कहा -'हे भद्र! मेरे वचन से पिता और माता को निवेदन करना कि आपलोग शोक क्यों करते हैं। आर्यपुत्र (मेरे पति) मुझ पर अत्यन्त दया और स्नेह रखते हैं। वासवदत्ता भी बहिन के समान मुझसे स्नेह रखती है। यदि अपने सत्य के समान मेरे जीवन की रक्षा चाहते हो तो तुम्हें आर्यपुत्र (उदयन) के प्रति वैमनस्य न रखना चाहिए।'
इस प्रकार पद्मावती के द्वारा पिता के प्रति सन्देश दिये जाने पर, वासवदत्ता ने, आतिथ्य सत्कार करके दूत को विदा किया। दूत के चले जाने पर पद्मावती, अपने पितृगृह की बातों का स्मरण करके कुछ अनमनी-सी हो गई। उसे अनमनी देखकर वासवदत्ता के द्वारा बुलाये गये विदूषक वसन्तक ने आकर कहानी कहना प्रारम्भ किया।
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