Dheera Sameere Yamuna Teere | geet govind | धीरसमीरे यमुनातीरे | गीतगोविंद |
Автор: Bhakti Sankirtan path
Загружено: 2022-10-03
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धीरसमीरे यमुनातीरे वसती वने वनमाली 'अष्टपदी-गीतगोविंद'
रतिसुखसारे गतमभिसारे मदनमनोहरवेशम् । न कुरु नितम्बिनि गमनविलम्बनमनुसर तं हृदयेशम् ॥
धीरसमीरे यमुनातीरे वसति वने वनमाली गोपीपीनपयोधरमर्दनचञ्चलकरयुगशाली ॥ 1॥
अनुवाद: हे प्रिये ! गोपियों के पुष्ट स्तनों के मलने में चंचल हाथों वाले वनमाली, जहाँ पर मन्द-मन्द पवन चल रहा है ऐसे यमुना के तट बैठे हैं नितम्बनी ! रति के सुख का सार ऐसे अभिसार में (संकेत स्थान) बैठे हुए कामदेव के सदृश्य सुन्दर अपने प्राणेश के समीप चलने में विलम्ब न करिये |1|
नाम समेतं कृतसंकेतं वादयते मृदुवेणुम् । बहु मनुते ननु ते तनुसंगतपवनचलितमपि रेणुम् ॥ 2॥
अनुवाद : हे सखी ! श्रीकृष्ण मधुर ध्वनि से आपके नाम के संकेत से संयुक्त बंशी बजा रहे हैं और आपके शरीर के स्पर्श को प्राप्त धूलि भी जो पवन द्वारा उड़ कर उन तक पहुँच रही है, उसके स्पर्श से अपने को धन्य समझते हैं | 2 |
पतति पतत्रे विचलति पत्रे शङ्कितभवदुपयानम् । रचयति शयनं सचकितनयनं पश्यति तव पन्थानम् ॥3॥
अनुवाद : हे राधे ! पक्षियों के उड़ने के शव्द का तथा पत्तों की खड़खड़ाहट को सुनकर श्रीकृष्ण आपके आगमन की सम्भावना करते हैं और चकित होकर आपके आगमन मार्ग को देखने लगते हैं तथा शय्या सजाने लगते हैं |3|
मुखरमधीरं त्यज मञ्जीरं रिपुमिव केलिसुलोलम् । चल सखि कुञ्जं सतिमिरपुञ्जं शीलय नीलनिचोलम् ॥ 4॥
अनुवाद : हे प्रिये ! शब्दायमान और रतिक्रीड़ा के समय चंचल, शत्रु की तरह इन अपने नूपुरों को जल्द से जल्द निकाल दीजिये और नीले वस्त्र धारण कर इस घने कुन्ज में चलिये |4|
उरसि मुरारेरुपहितहारे घन इव तरलबलाके । तडिदिव पीते रतिविपरीते राजसि सुकृतविपाके ॥ 5॥
हे पीतवणें राधे ! चंचल बकुल पक्ति से युक्त मेघ की तरह हीरे के हार से सुशोभित तथा बड़े पुण्य से उपलब्ध श्रीकृष्ण के वक्षस्थल पर विपरीत रति करके बिजली की तरह आप चमकिये |5|
विगलितवसनं परिहृतरसनं घटय जघनमपिधानम् । किसलयशयने पङ्कजनयने निधिमिव हर्षनिदानम् ॥ 6॥
अनुवाद : हे प्रिये ! कोमल- कोमल पत्तों के ऊपर सोने वाले कमलनयन श्रीकृष्ण के ऊपर वस्त्र और करधनी आनन्द का खजाना अपनी जाँघों को मिलाइये |6|
हरिरभिमानी रजनिरिदानीमियमपि याति विरामम् । कुरु मम वचनं सत्वररचनं पूरय मधुरिपुकामम् ॥ 7॥
अनुवाद : हे राधे ! हरि अभिमानी हैं और इस समय यह रात भी व्यतीत हुई जा रही है, इसलिए मेरे कहे हुए वचनों को शीघ्र सफल कीजिये तथा श्रीकृष्ण की इच्छा पूरी करिये |7|
श्रीजयदेवे कृतहरिसेवे भणति परमरमणीयम् । प्रमुदितहृदयं हरिमतिसदयं नमत सुकृतकमनीयम् ॥ 8॥
अनुवाद : श्रीहरि की सेवा करने वाले जयदेव कवि के इस गीत के परम रमणीय गाने पर अत्यंत प्रसन्नचित्त वाले कमनीय अति सुन्दर श्रीकृष्ण को प्रणाम है |8|
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