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क्यों और कैसे बनते हैं देवी देवताओं के रथ||देवताओं के रथ

Автор: Himalaya Dharohar

Загружено: 2024-10-08

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सबसे पहले ऋग्वेद में देवी देवताओं के वाहन के रूप में रथ के बारे में उल्लेख मिलता है।
पूरे विश्व में केवल हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के ऊपरी क्षेत्रों में ही देवी देवताओं के रथों का प्रचलन है। जो देवलोक का साक्षात स्वरूप है।
देवी देवताओं के रथ उनके ऐसे वाहन हैं जो लोगों के कंधों पर चल कर देवयात्राएं, देउली, भौती, मेले त्योहारों और विभिन्न अनुष्ठानो में शामिल होकर देव परंपरा को जीवंत बना लेते हैं।
हिमाचल प्रदेश में देवताओं के रथ कुल्लू, मंडी, शिमला, किन्नौर और लाहुल घाटी में प्रचलन में हैं।
रथों  के आकार भक्तों की इच्छा के अनुसार ही निर्मित होते हैं।जैसी श्रद्धालु भक्तों की इच्छा होती है, वे उसी आकार में अपने देवी देवता का रथ बना लेते हैं।
  कुल्लू में आरंभ में देवी देवताओं के वाहन करडू हुआ करते थे। करडू का अर्थ होता है करंडी। यह बांस की बनी टोकरी गोलाकार में डेढ़ फुट व्यास की डेढ़ फुट ऊंची होती है। जिसमें देवी देवताओं की मूर्तियां और अन्य निशान रखे जाते हैं।
कुल्लू में मान्यता है कि मलाणा के देवता जमलू ने ही ठारह करडू देवताओं की मूर्तियों को करडू में डालकर चंद्रखनी पर्वत पर पहुंचाया था। जहां से सभी मूर्तियां उड़ करके कुल्लू के विभिन्न गांवों में जाकर पूजित हुई थीं। इसलिए हम कह सकते हैं कि रथों की पहली शैली करडू शैली ही रही है।
रथों के निर्माण में प्राय देवदार या आंगू की लकड़ी प्रयोग में लाई जाती है। आधिकांश देवी देवताओं के अपने जंगल हैं। प्राय इन्ही में से देवता द्धारा छांटे गए पेड़ से विधिवत पूजन करने के बाद ही उसकी लकड़ी रथ निर्माण में प्रयोग में लाई जाती है।
कुल्लु, मंडी और किन्नौर में खड़े रथ बहुतायत में हैं। कुल्लू की गडसा, मणिकर्ण, सैंज, बंजार, आउटर सराज, महाराजा कोठी तथा मंडी के सराज,  शनोर, शिवा बदार,चौहार और किन्नौर जिले में इस प्रकार के खड़े रथ बहुतायत में चलन में हैं।
खड़े रथ लगभग दो फुट वर्गाकार में पायों से लगभग चार से छः फुट ऊंचे होते है। यह पायों से कंधों तक दो फुट चौकोर और तीन फुट ऊंचे होते हैं।  यह इनका मध्य भाग होता है।इसमें जो वस्त्र पहना जाता है , उसे कांचुआ कहा जाता है । इनमे कन्धे के चारों कोनों में जुडु के साथ लाल, हरे ,नीले ,पीले विभिन्न रंगों के दुपट्टे सुसज्जित रहते हैं।
इनमें चारों तरफ़ पायों के साथ जुड़ी हुई लकड़ी की चार इंच की शहतीरें जोड़ी जाती हैं। इन्हीं शहतीरों में आगे और पीछे दो दो छेद अर्गलाएं डालने के लिए बने होते हैं। अर्गलाओं को जमान भी कहते हैं। जमान की लंबाई बारह से अठारह फुट तक होती है।
  मध्य भाग पर कन्धे पर चारों ओर चांदी के जुडू लगाए जाते हैं। कन्धे के ऊपर का भाग लगभग एक फुट चौकोर तथा दो फुट लंबा होता है। जिसे गला कहते हैं। गले में चारों तरफ़ दो दो मोहरे लगे होते हैं। मोहरों के ऊपर नीचे चांदी या सोने की पट्टियां लगाई जाती हैं जिन्हें गौली कहा जाता है।
गले के ऊपर का गोल भाग जो दो फुट व्यास का छत्र नुमा होता है उसे शिव कहते हैं। शिव को शनील के कपडे से ढका जाता है। इसके सामने वाले भाग में एक सोने की पट्टी लगी होती है इसे गौली कहते हैं। शिव के ऊपर चुरू के काले बाल लगाए जाते हैं जिन्हें बांबल कहा जाता है। बाँबल के ऊपर चमकदार कपड़े की झालरदार टोपी लगाई है l
प्राय खड़े रथ वाले देवताओं के गले में आठ मोहरे लगे होते हैं। छाती की तरफ सोने की चौक भी लगाई जाती है।
कुल्लू मंडी के कुछ क्षेत्रो में गुंबद वाले खड़े रथ भी हैं। गुंबद शैली के रथ वैसे तो छत्र शैली के खड़े रथों की तरह ही हैं, लेकिन जहां छत्र शैली में छत्र नुमा शिव बना होता है,  इनमें वहां से ऊपर गुंबद जैसा आकार दिया जाता है। गुंबद के चारों ओर सोने या चांदी की पट्टी लगी होती है।
मंडी के चौहार क्षेत्र में खड़े रथों में छत्र नुमा सिर के ऊपर सफेद कपड़े की छोटी छोटी कतरने लगी होती हैं और उसके ऊपर चांदी का छोटा मंडप बन होता है। किन्नौर के देवताओं के सिरे पर चारों तरफ लम्बे लम्बे चुरू के बाल लगाए जाते हैं।
देवरथों का एक प्रकार है फेटे रथों का। महादेवों, नागों, त्रियुगी नारायण, ब्रह्मा  आउटर सराज के चंभुओं और देवियों के फेटी शैली के रथ हैं । महादेवों, नागों और नारायणों के रथ खड़ी शैली के रथों से अधिक घेरा लिए हुए होते हैं। बिजली महादेव, जुआनी महादेव, त्रियुगी नारायण, आदि ब्रह्म खोखन और चार चंभूओं के रथ इसी प्रकार के बने हुए हैं। इनके सिरों पर छत्र लगे होते हैं । मोहरों की संख्या सभी देवताओं में अलग अलग होती है।
नागों के रथ भी फेटी शैली में हैं। इनके रथों में सिर या मस्तक पर छत्र के स्थान पर नागफन या मनके वाली झालरें लगी होती हैं। सिर पर मोनाल या मोर की कलगी भी लगी होती हैं।ये जमानियों के कंधों पर चलते हुए नाग की तरह आगे बढ़ते हैं। आउटर सराज के नागों के रथ खड़ी शैली के भी देखे जा सकते हैं।
नीनू के देवऋषि नारद और बडोगी के भृगु ऋषि के रथ ढलवां शैली में अलग तरह के बने हुए हैं। इनमें छत्र नहीं लगे हैं। सिर पर पीछे की ओर ऋषियों की भांति लम्बे बाल बंधे हुए हैं।
आयताकार में बने देवियों के रथ देवताओं के रथों से कम घेरा लिए हुए होते हैं। इनमें भी अग्र भाग में मोहरे लगे होते हैं और मध्य और सिर पर तीन तीन छत्र लगे होते हैं। सामने चंद्र हार भी पहने जाते हैं। पीछे की तरफ चांदी तथा लाल धागों के जुटू पहने हुए होते हैं।
मंडी में घूंड वाले देवी रथ बहुत हैं। ये नीचे से ऊपर की ओर सिरे तक तिकोने आकार के होते हैं। ऐसे रथों में सिरे पर एक ही छत्र लगा होता है। सामने की तरफ मुखोटे लगे हुए होते हैं।
कुल्लू में भगवान रघुनाथ के रथ वर्गाकार में बने चारों ओर ढलवां छत के मंदिर जैसे हैं l
कुछ देवताओं के रथों को सिर पर उठाया जाता है। ये आकार में तिकोने आकार के होते हैं।

क्यों और कैसे बनते हैं देवी देवताओं के रथ||देवताओं के रथ

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