जीमूतवाहन के पूर्वजन्म की कथा
Автор: धर्म की बात
Загружено: 2026-03-01
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जीमूतवाहन के पूर्वजन्म की कहानी
जीमूतवाहन ने अपने मित्र मित्रावसु को अपने पूर्वजन्म की कथा सुनानी शुरू की।
उनका पूर्वजन्म एक विद्याधर था। एक बार हिमालय पर उड़ते हुए उसने अनजाने में उस शिखर का उल्लंघन कर दिया जहाँ भगवान शिव माता पार्वती के साथ विहार कर रहे थे। इस अपमान से क्रोधित होकर शिवजी ने उसे मनुष्य योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया। परन्तु, उन्होंने यह भी कहा कि जब वह किसी विद्याधरी से विवाह करके अपने पुत्र को राज्याभिषेक करवा देगा और अपना पूर्वजन्म याद कर लेगा, तब उसे पुनः विद्याधर पद प्राप्त हो जाएगा।
इस प्रकार, उसका जन्म वलभी नगरी के एक धनी व्यापारी के पुत्र वसुदत्त के रूप में हुआ। एक बार व्यापार से लौटते समय जंगल में डाकुओं ने उसे पकड़ लिया और उनकी देवी चंडिका को बलि चढ़ाने के लिए ले गए। उनका सरदार, एक भील राजा पुलिन्दक, वसुदत्त को देखते ही उसके प्रति गहरा स्नेह अनुभव करने लगा। वसुदत्त की जगह खुद को बलि चढ़ाने का निश्चय करके, उसने देवी से प्रार्थना की।
प्रसन्न होकर देवी ने आकाशवाणी द्वारा पुलिन्दक को वर माँगने को कहा। निस्वार्थ भाव से, उसने वर माँगा कि वसुदत्त के साथ उसकी मित्रता आने वाले सभी जन्मों में बनी रहे। देवी ने यह वरदान दे दिया और पुलिन्दक ने वसुदत्त को धन सहित सकुशल घर भेज दिया।
कुछ समय बाद, वलभी में डकैती के आरोप में पुलिन्दक को बंदी बना लिया गया। अपने ऋण को चुकाते हुए, वसुदत्त ने राजा को एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ देकर अपने मित्र की जान बचाई और उसका खूब आदर-सत्कार किया। इस उपकार का बदला चुकाने के लिए, पुलिन्दक दुर्लभ 'गजमुक्ता' मोती की खोज में हिमालय पहुँचा।
वहाँ उसने एक अद्भुत सुन्दरी कन्या, मनोवती, को एक सिंह पर सवार होकर शिवजी की पूजा करने आते देखा। अपने मित्र के लिए उसे उचित वधू समझकर, पुलिन्दक ने वसुदत्त के गुणों का बखान करते हुए उस कन्या का दिल जीत लिया। कन्या ने वसुदत्त से मिलने की इच्छा जताई।
पुलिन्दक तुरंत लौटा और वसुदत्त को हिमालय ले आया। वसुदत्त और मनोवती की पहली मुलाकात में ही प्रेम हो गया। मनोवती ने बताया कि स्वप्न में शिवजी ने उसे आज ही अपना वर मिलने का वरदान दिया था।
विवाह का निश्चय करके, तीनों मनोवती के सिंह पर सवार होकर वलभी लौटे। शादी के भव्य समारोह के दौरान एक चमत्कार हुआ; सिंह एक दिव्य विद्याधर में बदल गया।
उसने स्वयं को चित्रांगद नामक विद्याधर और मनोवती का पिता बताया। उसने बताया कि ऋषि नारद के शाप के कारण वह सिंह बन गया था और तब तक सिंह बना रहेगा जब तक उसकी पुत्री का विवाह किसी मनुष्य से नहीं हो जाता। विवाह पूरा होने पर शाप मुक्त होकर, उसने सबको आशीर्वाद दिया और स्वर्गलोक चला गया।
वसुदत्त के पिता ने प्रसन्न होकर पुलिन्दक को जंगल का राज्य दिलवा दिया। वसुदत्त वर्षों तक अपनी पत्नी मनोवती और मित्र पुलिन्दक के साथ सुखपूर्वक रहा। उनके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम हिरण्यदत्त रखा गया।
वृद्धावस्था में, वसुदत्त को शिवजी के शाप और अपने विद्याधर होने का स्मरण हुआ। मोक्ष की इच्छा से, उसने अपने पुत्र को घर की जिम्मेदारी सौंपी और अपनी पत्नी तथा मित्र के साथ पर्वत पर चला गया। वहाँ, अगले जन्म में भी उन दोनों को अपना साथी बनाने की कामना करते हुए, उसने भगवान शिव का स्मरण करते हुए पर्वत से कूदकर अपने मानव शरीर का त्याग कर दिया।
निष्कर्ष: वर्तमान जीवन का संबंध
जीमूतवाहन ने निष्कर्ष निकाला, "वह वसुदत्त अब विद्याधरकुल में पुनर्जन्म लेकर मैं, जीमूतवाहन बना हूँ। वह भील राजा पुलिन्दक अब तुम, मित्रावसु हो। और मेरी पत्नी मनोवती अब तुम्हारी बहन, मलयवती है। इसीलिए मैं उससे विवाह करना चाहता हूँ, क्योंकि वह मेरी पत्नी और तुम मेरे अभिन्न मित्र हमारे पिछले जन्म में रहे हो।"
खुशी से सहमत होकर, मित्रावसु ने दोनों परिवारों की स्वीकृति ले ली। जीमूतवाहन और मलयवती का दिव्य विवाह सम्पन्न हुआ, जिसमें अनेक देवता और विद्याधर उपस्थित हुए। इस प्रकार, एक शाप से शुरू हुई और एक अटूट मित्रता तथा प्रेम के बंधन से बंधी उनकी नियति पूरी हुई।
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