Bhagawad Geeta (Hindi) Talk 229. Chapter -13, Shloka 23, Swamini Anaghananda, Chinmaya Mission,Thane
Автор: Chinmaya Mission Thane
Загружено: 2025-09-15
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क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगः
श्रीमद्भगर्वीता के तेरहवें अध्याय में कुल चाैंतीस मन्त्र प्राप्त होते हैं। इस अध्याय के मुख्य विषय का नाम इसके पुष्पिका वाक्य में आया है, क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभाग योगो नाम। अर्थात इस अध्याय का मूल विषय है क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के बारे में ज्ञान देना। परमात्मा ने स्वयं ही इस अध्याय का आरंभ किया और पहले ही श्लोक में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, दोनों की परिभाषा दी। वास्तव में ये दोनों शब्द पिछले बारह अध्यायों में कहीं भी प्राप्त नहीं होते हैं। भगवान एकदम नवीन विषय सामने रख रहे हैं। इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रम् इति, यह जो शरीर है उसी का नाम है क्षेत्र और जो इस शरीर को जानता है उसका नाम है क्षेत्रज्ञ, एतद् यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञः। यहाँ से परमात्मा प्रारंभ करते हैं। इस क्षेत्रज्ञ का जो वास्तविक स्वरूप है, वह भगवान ने अगले ही श्लोक में बताया, क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि। अर्थात जिसको हम क्षेत्रज्ञ कह रहे थे, अगर ठीक से उसके वास्तविक स्वरूप का निश्चय किया जाए तो वह साक्षात परमात्मा के रूप में ही सिद्ध होगा। वह अभी क्षेत्रज्ञ के रूप में जान पड़ रहा है लेकिन उसके स्वरूप का निश्चय करने पर सिद्धि यह होगी कि वह साक्षात परमात्मा है।
जब तत्त्वमसि के आधार पर गीताजी का विवेचन होता है तो कहा जाता है कि पहले के छह अध्यायों में त्वम् पद का निरूपण हुआ है और सातवें अध्याय से बारहवें अध्याय तक, अर्थात अगले छह अध्यायों में तत् पदार्थ का निरूपण हुआ है। दोनों का विवरण करने के बाद परमात्मा ने तेरहवें अध्याय में उनका ऐक्य बताया है। इस प्रकार इस अध्याय में असि पद की प्राप्ति हो गई है। जो दूसरा श्लोक है, उसमें भगवान ने स्पष्ट कहा, क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि। यह है क्षेत्रज्ञ से ईश्वर की एकता। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि जो इस शरीर का ज्ञाता है, जो इस शरीर के सुख दुख को जानता है, उस जीव को ही यहाँ भगवान ने क्षेत्रज्ञ कहा है। इसका मतलब यह हुआ कि जीव को ही क्षेत्रज्ञ कहते हैं लेकिन यदि उसके स्वरूप का ठीक से निश्चय किया जाए तो ज्ञात होगा कि वह क्षेत्रज्ञ वास्तव में मैं ही हूँ।
।। ॐ तत्सत्।।
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