Devidhura Bhawani Maa | देवीधुरा भवानी माँ - Gopal Babu Goswami | गोपाल बाबू गोस्वामी
Автор: Gopal Babu Goswami RBG
Загружено: 2023-09-29
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Devidhura Bhawani Maa | देवीधुरा भवानी माँ - Gopal Babu Goswami | गोपाल बाबू गोस्वामी
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चम्पावत जनपद मुख्यालय से 60 किमी0 की दूरी पर स्थित देवीधुरा आबादी और बनावट के लिहाज से किसी छोटे पहाड़ी कस्बे की तरह है। एतिहासिक दृष्टि से यह स्थान बहुत महत्वपूर्ण रहा है। पुरातात्विक महत्व के कई स्मारक आज भी यहाँ अतीत की गौरव गाथा सुनाते जान पड़ते हैं। अल्मोड़ा-लोहाघाट मार्ग पर ढोलीगाँव-देवीधुरा पर्वतमाला के उत्तर-पश्चिम छोर पर बसा देवीधुरा समुद्र तल से लगभग 2500 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। प्राकृतिक दृश्यावलियों की दृष्टि से देवीधुरा अत्यन्त रमणीक स्थान है। यहाँ से पूर्व की ओर जहाँ तक दृष्टि जाती है, एक के पीछे एक ऊँची-नीची वनाच्छादित पर्वत श्रृंखलायें ही दिखाई देती हैं। इस स्थान पर बिखरे हुए अवशेषों को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि पूर्वकाल में यहाँ प्राचीन कत्यूरी शैली के मंदिरों का समूह रहा होगा। प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर यह स्थान महाभारत में पांडवों के अज्ञातवास से लेकर अनेक पौराणिक, धार्मिक व ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़ा रहा है।
देवीधुरा का शाब्दिक अर्थ है देवी का धुरा अर्थात देवी का पहाड़। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार शक्ति का धाम हमेशा ऊँची चोटियों पर ही रहा है। यहाँ पर अज्ञातकाल से ही ‘देवी’ की पूजा-अर्चना की जाती रही है। आजकल की ‘बाराही’ लेकिन लोकगीतों की ‘आषड़ी’ देवी की पूजा, एक दूसरे पर टिकी हुई तीन विशालकाय शिलाओं के बीच बनी गुफा के भीतर एक शिला के रूप में की जाती है जिसे ‘गबौरी’ कहा जाता है और जिसके ऊपर मन्दिर का आच्छादन-सा बना हुआ है। ‘गबौरी’ में दो दीपक दिन-रात जलते रहते हैं। इनको निरन्त जलाये रखने का कार्य पुजारी का होता है जो निकटवर्ती गाँव टकना में निवास करने वाली ‘गुरौ’ जाति से होते हैं और बारी-बारी से देवी की पूजा द्वार से प्रवेश कर पश्चिमी द्वार से बाहर निकलने की परंपरा है। ‘गबौरी’ के प्रवेश द्वार के पास भैरव का छोटा-सा मंदिर है। यहाँ ‘गबौरी’ के प्रवेश द्वार के अतिरिक्त एक पृथक द्वार भी है जो उत्तर-पश्चिम की ओर खुलता है। ‘अठवार’ (आठ पशुओं की बलि) के साथ बलि के लिए लाए गए महिष को पश्चिम की ओर से घुमाकर इसी द्वार से प्रवेश कराया जाता है। यह द्वार अपेक्षाकृत कुछ बड़ा है जबकि दोनों ओर के ‘गबौरी’ द्वार अत्यंत संकीर्ण हैं और इनसे होकर एक बार में केवल एक व्यक्ति ही प्रवेश करता है।
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पंचमी दण्डनाथ च संकेता समयेश्वरी तथा समय संकेता बाराही क्षेत्रिणी शिवा।
वार्ताली च महासेना स्वज्ञा चक्रेश्वरी तथा आरिहनी च ति सम्प्रोक्तं नाम द्वादशक मुने।।
रक्षांबधन के दिन आयोजित होने वाले इस पाषाण युद्ध ये जुड़ी लोक मान्यता के अनुसार प्राचीन काल में माँ बाराही को प्रसन्न करने के लिए यहाँ नरबलि देने की प्रथा थी। तब प्रतिवर्ष इन चार खामों के परिवारों में से किसी एक सदस्य की बलि दी जाती थी। इस प्रकार जब चम्याल खाम की एक वृद्धा की बारी आई तो वंश नाश के डर से उसने अपने पोते की बलि देने से इंकार कर दिया। कहीं देवी कुपित न हो जाए, यह सोचकर गाँव वालों ने निर्णय लिया कि बग्वाल यानि पत्थरों का युद्ध कर एक मनुष्य के शरीर के बराबर रक्त बहाया जाय। तभी से नरबलि के प्रतीकात्मक विरोध स्वरूप परंपरा को जीवित रखते हुए हर साल श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को चारों खामों के लोग यहाँ ढोल-नगाड़ों के साथ पहुँचकर पत्थर युद्ध खेलते हैं।
पत्थरों के इस रोमांचकारी खेल को देखने के लिए हजारों की संख्या में पर्यटक देवीधुरा पहुँचते हैं। इनमें विदेशी सौलानियों की भी बड़ी तादाद होती है। यह मेंला अब पर्यटन का स्वरूप धारण कर चुका है जिसमें उत्तराखण्ड की विविधतापूर्ण संस्कृति के दर्शन किए जा सकते हैं। यह सम्पूर्ण क्षेत्र धार्मिक रूप से जितना प्रसिद्ध है, प्राकृतिक रूप से उतना ही सुंदर है। यही कारण है कि लोक परंपराओं से जुड़े इस अनूठे मेले को देखने श्रद्धालु तो पहुँचते ही हैं,
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