06. सुन चेतन इक बात | Sun Chetan Ek Baat | Dhyanatrayji | Parthiv Gohil
Автор: VitragVani
Загружено: 2021-05-15
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सुन चेतन इक बात हमारी... कवि श्री द्यानतरायजी द्वारा रचित अनुपम रचना
Adhyatam Sanjeevani Part - 1 Audio album (Video form) showing collection of ancient adhyatmik bhajan's by various scholars.
Composer - Suresh Joshi
Studio - Buzz In Studio, Mumbai
Singer - Parthiv Gohil.
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भावार्थ :-
हे चेतन प्राणी! हमारी एक बात को ध्यान से सुनो! अरे तुम तो तीन लोक के स्वामी हो और फ़िर भी तुम इन्द्रिय विषय भोगों में लुब्ध होकर दरिद्री बनकर दुखी हो रहे हो॥1॥
अरे चेतन! तुम तो बहुत चतुर हो, सयाने हो, वह तुम्हारी चतुराई कहां गई? थोडे से इन्द्रिय-विषयों के सुख के कारण, शाश्वत रहने वाली ऋद्धि को तुमने गवां दिया है॥2॥
इन्द्रिय-विषयों के सेवन में राई जितना भी सुख नही है। उल्टा इनके सेवन करने में मेरु पर्वत के समान महादु:ख है। अरे मुर्ख! तब भी तू इन विषयों से लिपटा हुआ है, यह तुने कैसा सयानापन किया है॥3॥
इस अस्थिर जगत में कुछ भी स्थिर नही रहता है तो तू सदा काल रहेगा तूने ऐसा क्यों मान लिया? प्रकट में संयोगों को जाता देखकर भी तुझे ख्याल नहीं आता, लगता है कि तुने भांग खा रखी है जिससे तेरी सोचने -समझने की शक्ति क्षीण हो गई है॥4॥
इस जगत में दु:ख सहते-सहते तुम्हें अनन्तकाल व्यातीत हो गये तब भी तुझे भान नही हुआ कि ये इन्द्रियां विषय और कषाय ही तेरे महान शत्रु है॥5॥
जगत में यश , लाभ और पुजा (मान) के लिये तुने अपना यह बाहर का वेश बना रखा है। तुने परमतत्व को अर्थात् वस्तु स्वरुप को तो समझा नही और व्यर्थ में ही अनादिकाल से समय गंवाता जा रहा है॥6॥
यह दुर्लभ नर देह को पाकर तुमने क्या कार्य सम्पन्न किया? स्त्री - पुत्र और धन -सम्पदा के लिये तुने अमुल्य जिन धर्म को गंवा दिया॥7॥
ज्ञानी जीवों को घट-घट में, प्रत्येक देह में अनन्त शाक्तिशाली आत्मा दिखाई देती है पर मुर्ख उसे समझ नहीं पाते। जैसे अपनी नाभि मे रखी कस्तुरी की सुगन्ध से अनजान मृग उसके लिये सभी दिशाओं में दौडता फ़िरता है॥8॥
घट-घट में आत्मा विध्यमान होने पर भी उसका स्वरुप घट से अलग है तथा वह घट में रहकर भी घट से भिन्न है। जिस प्रकार घूघंट को हटाने के बाद स्त्री का सुंदर मुख दिखाई देता है वैसे ही जब यह जीव इस घट अर्थात् देह से भिन्न आत्म तत्व को दृष्टिंगत करता है तब उसको निज आत्मस्वरुप के दर्शन होते हैं॥9॥
कवि धानतरायजी कहते हैं कि जो अपने मन को निर्मलकर मन इन दस पदों को सुनते और धारण करते हैं वे संसार समुद्र से पार होकर मुक्ति रुपी लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं॥10॥
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