श्री रामचरितमानस प्रथम सोपान बालकाण्ड दोहा संख्या 01 से 03 तक // Ramayan Path / Shriramcharitmanas l
Автор: वैदिक कर्मकांड सीखें
Загружено: 2025-06-25
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श्री रामचरितमानस प्रथम सोपान बालकाण्ड दोहा संख्या 01 से 03 तक // Ramayan Path / Shriramcharitmanas l
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बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर ॥ ५ ॥
बंदउ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ॥
अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू ॥
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती ॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी ॥
श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य द्रृष्टि हियँहोती ॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू ॥
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँजो जेहि खानिक ॥
दो. जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान ॥ १ ॥
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन ॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन ॥
बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना ॥
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी ॥
साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू ॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा ॥
मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू ॥
राम भक्ति जहँसुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा ॥
बिधि निषेधमय कलि मल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी ॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी ॥
बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा ॥
सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा ॥
अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ ॥
दो. सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग ॥ २ ॥
मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला ॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई ॥
बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी ॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना ॥
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँजेहिं पाई ॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ ॥
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला ॥
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई ॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं ॥
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी ॥
सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें ॥
दो. बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ ॥ ३(क) ॥
संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु ॥ ३(ख) ॥
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