पुरूरवा और उर्वशी की कथा
Автор: धर्म की बात
Загружено: 2025-12-08
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तृतीय तरंग: वत्सराज की कथा (चालू)
किसी एक दिन एकान्त में वत्सराज ने वासवदत्ता और पद्मावती के साथ पान क्रीडा करके गोपालक, रुमण्वान् और वसन्तक के साथ यौगन्धरायण को बुलाया और गुप्त गोष्ठी करने लगा। उस अवसर पर अपने विरह के प्रसंग में वत्सराज ने उन सब के सुनते रहने पर यह कथा कहना प्रारम्भ किया।
पुरूरवा और उर्वशी की कथा
प्राचीन युग में परमवैष्णव (विष्णु भक्त) पुरूरवा नाम का राजा था। पृथ्वी के समान स्वर्ग में भी उसकी बे-रोक-टोक गति थी। एक बार नन्दन-उद्यान में घूमते हुए उसे उर्वशी अप्सरा ने देखा, जो कामदेव के सम्मोहन नामक दूसरे अस्त्र के समान थी।
पुरूरवा को देखते ही उर्वशी संज्ञाहीन (बेहोश) हो गई। उसके कारण रम्भा आदि उसकी सखियों का हृदय काँपने लगा। राजा पुरूरवा भी, लावण्य-रस की निर्झरिणी के समान उर्वशी को देखकर भी जो उसका आलिंगन प्राप्त न कर सका; उस प्यास से मानों मूच्छित हो गया।
राजा को इस प्रकार सन्तप्त जानकर क्षीर-समुद्र में विश्राम करते हुए सर्वज्ञ भगवान् विष्णु ने, दर्शन के लिए आये नारद मुनि को, आदेश दिया। हे देवर्षि! नन्दन-उद्यान में स्थित राजा पुरूरवा उर्वशी पर मोहित हो गया है और उर्वशी के विरह को सहन नहीं कर पा रहा है। इसलिए तुम मेरी ओर से इन्द्र के पास जाकर और उसे समझाकर उर्वशी को राजा के लिए तुरन्त दिलवा दो।
भगवान् हरि से इस प्रकार आज्ञापित नारद ने आकर पुरूरवा को होश में लाकर कहा- 'राजन्! उठो, तुम्हारे लिए मुझे भगवान् विष्णु ने भेजा है। वे अपने निश्छल भक्तों के कष्ट की उपेक्षा नहीं करते।'
इस प्रकार आश्वासित पुरूरवा के साथ नारद मुनि इन्द्र के पास गये और प्रणाम करते हुए इन्द्र को हरि की आज्ञा सुनाकर, उर्वशी को, राजा पुरूरवा के लिए, दिला दिया। इस प्रकार उर्वशी का दान स्वर्ग को निर्जीव करने और उर्वशी को मानों मृत संजीवन औषधि देने के समान था।
स्वर्गीय पत्नी का ग्रहण करके मर्त्यलोकवासियों की आँखों को आश्चर्य में डालते हुए पुरूरवा उसे लेकर भू-लोक में आ गया। इस प्रकार कभी नष्ट न होनेवाले पुरूरवा और उर्वशी——दोनों, परस्पर आकृष्ट होकर बँधे हुए-से रहने लगे।
वियोग और पुनर्मिलन
एक बार मायाघर नामक असुरराज के साथ इन्द्र का युद्ध होने पर इन्द्र ने अपनी सहायता के लिए पुरूरवा को बुलाया और पुरूरवा स्वर्ग को गया। इस युद्ध में मायाघर के मारे जाने पर इन्द्र के यहाँ उत्सव हुआ, जिसमें सभी स्वर्गीय स्त्रियों ने भाग लिया। उस उत्सव में आचार्य तुम्बुरू के उपस्थित रहते हुए रम्भा नाम की वेश्या नृत्य कर रही थी; उसके नृत्य में कुछ त्रुटि होने पर पुरूरवा ने हँस दिया। उसकी हँसी से चिढ़कर रम्भा ने कहा -'यह देव नृत्य है, इसे मैं जानती हूँ। हे मनुष्य! तू इसे क्या जाने।'
राजा ने कहा-'उर्वशी के सम्पर्क से जो कुछ मैं जानता हूँ, उसे तुम्हारे गुरु तुम्बुरू भी नहीं जानते।' यह सुनकर तुम्बुरू ने क्रोध में भरकर राजा को शाप दिया कि जबतक कृष्ण की आराधना न करोगे तबतक उर्वशी से तुम्हारा वियोग हो जायगा।
शाप को सुनकर राजा पुरूरवा ने अकाल में वज्रपात के समान यह शाप उर्वशी को कह सुनाया। तदनन्तर अकस्मात् गन्धर्वो ने तुम्बुरु की आज्ञा से आकर गुप्त रूप से उर्वशी का अपहरण कर लिया।
पुरूरवा ने इसे शाप का फल समझ कर वदरिकाश्रम में जाकर भगवदाराधन प्रारम्भ किया। गन्धर्व-लोक में राजा के वियोग से सन्तप्त उर्वशी, निर्जीव-सी, सोई-सी, चित्रलिखित-सी, एवं संज्ञाहीन होकर पड़ रही। वह शाप के अन्त की आशा पर अवलम्बित विरह से लम्बी रात्रियों में चकवी के समान तड़पती-सी रहती; किन्तु प्राणों से विरक्त न हुई।
इधर पुरूरवा ने भगवान् विष्णु को तप से प्रसन्न किया। भगवान् की कृपा से गन्धर्वों ने उसकी उर्वशी को छोड़ दिया। शाप के अन्त में पुनः प्राप्त हुई उर्वशी के साथ राजा भूलोक में स्वर्गीय आनन्द का उपभोग करता था।
कथा का प्रभाव
इस प्रकार कथा सुनाकर राजा के चुप होने पर उर्वशी की विरह वेदना की सहन-शक्ति को जानकर वासवदत्ता मन-ही-मन लज्जित हुई। राज के द्वारा युक्तिपूर्वक उपालम्भ दी गई वासवदत्ता को कुछ लज्जित देखकर उसे आश्वासन देने के लिए यौगन्धरायण ने कहा।
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