मागे पर्व ! भाग 1 ! mage parv ! part 1! mage parab ! mage parb ! mage parv kyo manaya jata hai !
Автор: गिति ओड़ा giti oda
Загружено: 2022-01-29
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मागे पर्व ! भाग 1 ! mage parv ! part 1! mage parab ! mage parb ! mage parv kyo manaya jata hai !
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👍*टुसु पर्व या पुष पर्व मुण्डाओं की मागेबुरु का विकृत रुप है*
टुसु पर्व को झारखंड, बंगाल और उड़ीसा के कुड़मी और आदिवासी लोग खूब धूमधाम से पौष महीना में मनाते हैं।
टुसु पर्व या पुष पर्व का आजतक कोई पूख्ता लोककथा या इतिहास नहीं है। बस मना रहे हैं तो मना रहे हैं। झारखंडी कुड़मी समुदाय भी भिन्न-भिन्न बतलाते हैं। लेकिन लोककथा सुनने से ऐसा लगता है कि कुड़मी समाज कुछ रहस्य को छुपा रहे हैं या फिर सच्चाई का पता ही नहीं है। झारखंडी मुण्डा और संथाल आदिवासी भी पुष तो मनाते हैं। लेकिन 90% आबादी को टुसु और पुष पर्व को मनाने का उदेश्य मालुम नहीं है।
हकीकत क्या है..??
गहन शोध करने पर पता चलता है कि टुसु पर्व या मकर संक्रांति मुण्डा आदिवासियों की पर्व नहीं है। संथाल आदिवासियों से जरा सा संबंधित है। लेकिन विवादित कथा सुनाना जरा अनुचित और अशोभनीय होगा। इसलिए कथा को मैं भी नहीं बताऊँगा।
बस इतना जान लीजिए कि टुसु पर्व न तो आदिवासियों की थी और न ही ज्यादा प्राचीन है।
आदिवासियों की इसलिए नहीं है। क्योंकि इसकी एक भी प्रमाणित मौखिक लोककथा नहीं है।
पुष का मतलब तो जरा समझ में आता है कि पौष महीना में मनाए जाने वाला एक कटनी का त्योहार या एक जातरा है।
लेकिन टुसु का मतलब तो दुविधा जनक है। मन्दिर नुमा आकृति को ही आदिवासी लोग टुसु या चौडल कहते हैं। जबकि धरती पर मन्दिर या बौध मठ का निर्माण या मूर्ति पूजा तो वैदिक काल में शुरु हुई हैं। इसलिए न तो प्राचीन है और न ही प्राकृति या फिर आदिवासी पूरखों की इतिहास से कोई नाता।
चौडल के अन्दर एक या दो लघु मूर्ति रखने का रिवाज है। किसकी मूर्ति है यह सवाल करने पर कुछ लोग कहते हैं कि यही तो टुसु देवी है। लेकिन बतलाया जाता है कि टुसु तो कुँवारी कन्या थीं। जबकि शादीशुदा महिलाएं ही नाम में देवी लगाती हैं। फिर आदिवासी महिलाओं में देवी संज्ञा जोड़ना एक अज्ञानता थी। अब बन्द हो रही हैं।
कुड़मियों की टुसु गाना एवं पूजा की बुदबुदाहट में सरस्वती और लक्ष्मी का बखान है। यह हिन्दुत्व है। हिन्दुओं की धार्मिक आस्था से अधिक करीब होने एवं कुड़माली बोली का मराठी,सादरी, भोजपुरी एवं बंगाली से बहुत मिलान है।लेकिन होड़ो बोली से पूर्ण भिन्नता है। इसलिए न तो आदिवासियों का त्योहार है और न ही ज्यादा प्राचीन है। कुँवारी कन्या टुसु तो किसी अत्याचारी या बलात्कारी राजा के भय से या फिर कलंक से बचने के लिए ,पौष की महीना में नदी की ठंड से सिकुड़ा देने वाली पानी में छालांग लगाकर, अपनी जीवन लीला को समाप्त कर दी थीं। वैदिक भाषा में जल समाधि भी कह सकते हैं। आधुनिक बोली में तो महज एक आत्महत्या थीं।
यहाँ एक बात और बताना उचित होगा कि राजा लोगों का उदय तो वैदिक काल में शुरु हुई थीं। कोल या भील में तो कबीला सरदार और मुण्डा सरदार हुआ करते थे।
कबिला सरदार या कुनबा का कोई आदिवासी प्रधान भले दो-तीन शादी कर लेते थे। लेकिन कुँवारी कन्याओं को आदिवासी राजाओं द्वारा शोषण करने की बातें। आदिवासी इतिहास में नहीं थी और न ही आज भी स्वीकार है।
एक और आदिवासी ज्ञान, रिवाज या पारम्परा की बात बताना जरा उचित होगा कि, आदिवासी लोग अस्वाभाविक मौत से मरने वालों की न तो विधिवत मृत्यु संस्कार करते हैं और न ही आराधना एवं स्तुति। अधिकतम पूरुष पूरखों को ही याद करने की प्रथा है।
शायद एक उदाहरण देना उचित होगा। मुगलों से लड़ाई करने के समय सिनगी दाई और कोईली दाई दो मुण्डा युवतियों ने नेतृत्व की थीं। लेकिन आज उसकी स्मृति में ,12 साल में एक बार ऐरा सेन्देरा, कुड़ी सेन्देरा (जानी शिकार) होता है। मुगलों से यह लड़ाई 1200ई. के आसपास हुई थीं। इसलिए 12 साल में एक बार होता है। 12 साल को एक एरा भी कहते हैं।
टुसु पर्व या पुष पर्व में बुंडु-तमाड़ एवं बंगाल के मुण्डा लोग भी खूब भागीदारी निभाते हैं। इसलिए उन्हे यह बताना बेहद जरूरी है कि मुण़्डाओं का त्योहार तो मागे या मागेबुरु होता है। टुसु या पुष तो कतई नहीं।
👍इससे आगे का संवाद आपको अगले वीडियो के डिस्क्रिप्शन में मिल जाएगा
मुण्डा समाज अक्षर ज्ञान और मुण्डा साहित्य की ताकत को जितनी जल्दी समझ जाए। मुण्डा समाज का सर्वांगीण विकास होगा।
मुण्डा समाज में एक आन्तरिक बदलाव आएगा। बड़े-बूढ़ो को भी खुशी होगी।
मागेबुरु एवं मागे परब की हार्दिक शुभकामनाएं..!
महादेव मुण्डा, चाड़िद, खूँटी
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