ऊँच-नीच का भेद मिटाने का मंत्र! कबीर जी का राज जो आपको हैरान कर देगा | Kabir Bhajan | Kabir Das Ji
Автор: कबीर–पथ
Загружено: 2025-10-17
Просмотров: 2209
स्वागत है कबीर-पथ में।
इस भजन में कबीरदास जी का अमृत दोहा
"जिनके प्रेम न ऊँच-नीच, जिनका भाव समाय।
कहैं कबीर वे साधु जन, भवसागर तरि जाय"
को हृदयस्पर्शी संगति में प्रस्तुत किया गया है।
Welcome to Kabir-Path. This soulful composition presents Kabir's profound doha about equality and divine love, set to meditative music.
🎵 इस भजन की विशेषताएं:
• कबीर का समभाव दर्शन
• शांत और मेडिटेटिव संगति
• हृदय को छू लेने वाले बोल
• आंतरिक शांति का अनुभव
📜 मुख्य संदेश:
"जहाँ न ऊँच-नीच, वहाँ प्रेम की धार
समभाव की नाव, पाए सच्चा पार"
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Lyrics :
मन से पूछ—जहाँ भेद मिटे, वहीं प्रेम सच्चा खिलता है;
जहाँ समभाव जागे, वहीं नाव पार लगती है।
जिनके प्रेम न ऊँच-नीच, जिनका भाव समाय।
कहैं कबीर वे साधु जन, भवसागर तरि जाय॥
एक नगर में द्वार बहुत—मन के भीतर दीवार,
अपना–पराया बाँट-बाँट—हुआ हृदय लाचार।
किस देह का बढ़कर मान? किस वर्ण का ऊँचा तख्त?
जिस श्वास में एक-सा प्रभु—वहीं सत्य का पथ।
धूप किसी पर कम न पड़ी, जल किसी को कम क्यों मिले?
एक नूर जब सबमें देखा—तभी आँसू कम हुए।
जहाँ न ऊँच–नीच, वहाँ प्रेम की धार;
समभाव की नाव, पाए सच्चा पार।
जिसका अंतः शांत, जिसकी दृष्टि सम,
भवसागर क्या—वो पार कर ले तम।
सेवा वही जो भेद हटाए—धीमे-धीमे प्रेम बढ़ाए,
वाणी शीतल, चाल सरल—कटुता का काँटा गिराए।
रंग–रूप के दर्पण टूटे—हृदयदर्पण साफ हो,
राग–द्वेष के धागे छूटें—अंतर ज्योति चालू हो।
अन्न बाँटे आधा-आधा—तन को कम, मन को तृप्त,
मुस्कान बाँधे गाँव-गाँव—भेद-वेदना हो विर्त्त।
एक नाड़ी, एक श्वास—एक-सा ही नूर;
जिसने सबमें देखा एक—उसके निकट हुजूर।
जब अपमान का क्षार लगा—हृदय में उठे बादल,
जो सम रहे, वही सध गए—शांत हुए सब साँकल।
क्रोध-अहं की धूल उड़े—कर्म बने मधुर गान,
क्षमाभाव की सीढ़ी चढ़—ऊपर पहुँचा ज्ञान।
जिनके संग न द्वेष जगे—उनके संग प्रभु पास,
समदर्शी की दृष्टि में—सबमें एक निवास।
भेद घटे तो प्रेम फले—तो पार मिले
मन से गिरें ऊँच–नीच—नाव बने नाम-सुमिरन
प्रेम नापा जहाँ नहीं—वहाँ बहे अमृत-राह,
भाव समाता सबमें जब—दूर हो जाती चाह।
दिन की शुरुआत नेह से—रात समेटे ध्यान,
कबीर कहें—समभाव-धन—कटे भवसागर-प्राण।
जहाँ न ऊँच–नीच, वहाँ प्रेम की धार;
समभाव की नाव, पाए सच्चा पार।
नाम-सुमिरन साथ, सेवा का विस्तार,
ऐसे साधु जन—निश्चय पाए पार।
जिनके प्रेम न ऊँच-नीच, जिनका भाव समाय।
कहैं कबीर वे साधु जन, भवसागर तरि जाय॥
भेद घटाओ, प्रेम बढ़ाओ—यही सरल उपाय;
समभाव की यह एक-नाव—हर तट तक ले जाए।
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