पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजूँ पहार।याते तो चक्की भली, पीस खाय संसार
Автор: kabir Das Bhajan
Загружено: 2025-12-19
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पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजूँ पहार।
याते तो चक्की भली, पीस खाय संसार॥
संत कबीर दास जी का यह प्रसिद्ध दोहा मूर्तिपूजा पर एक गहरा व्यंग्य है। कबीर जी कहते हैं कि यदि पत्थर की मूर्ति की पूजा करने से ईश्वर मिलते हैं, तो मैं पहाड़ की पूजा करूँ। इससे तो घर की चक्की ही अच्छी है, जो संसार का पेट भरती है। यह दोहा केवल एक आलोचना नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक जागरण है — जो हमें बाह्य आडंबरों से हटाकर सच्चे भक्ति मार्ग की ओर ले जाता है।
✨ भावार्थ और आध्यात्मिक संदेश
मूर्तिपूजा की आलोचना: कबीर जी ने बाह्य पूजा-पद्धतियों पर सवाल उठाया है।
सच्ची भक्ति का मार्ग: ईश्वर की प्राप्ति केवल प्रेम, ध्यान और आत्मिक शुद्धता से होती है।
प्रयोगात्मक दृष्टिकोण: कबीर जी ने चक्की को प्रतीक बनाकर बताया कि कर्म और उपयोगिता ही सच्चे धर्म हैं।
निर्गुण भक्ति का समर्थन: कबीर जी निर्गुण ईश्वर के उपासक थे — जो रूप, रंग, मूर्ति से परे हैं।
📚 कबीर वाणी की विशेषताएँ
सरल भाषा में गहन दर्शन।
सामाजिक कुरीतियों पर तीखा प्रहार।
आत्मा की शुद्धता को सर्वोपरि मानना।
गुरु की महत्ता और नाम-स्मरण पर बल।
🔍 कबीर के अन्य दोहे जो इसी भाव को दर्शाते हैं
कंकर पाथर जोड़ के, मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय॥
➡️ ईश्वर को ऊँची इमारतों से नहीं, हृदय की गहराई से पुकारा जाता है।
कबीरा ते नर अंध है, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर॥
➡️ गुरु की कृपा ही ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग है।
कबीरा खड़ा बजार में, लिए लुकाठी हाथ।
जो घर फूँके आपना, चले हमारे साथ॥
➡️ जो अपने अहंकार को त्यागता है, वही सच्चे मार्ग पर चलता है।
📌 निष्कर्ष
“पाहन पूजे हरि मिलें” दोहा हमें यह सिखाता है कि सच्चा धर्म बाहरी पूजा नहीं, बल्कि भीतर की साधना है। कबीर दास जी की वाणी आज भी हमें आत्मचिंतन, विवेक और सच्चे भक्ति मार्ग की ओर प्रेरित करती है
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