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श्री भक्ति प्रकाश भाग(801)**WHO AM I

Автор: Bhakti me Shakti

Загружено: 2025-11-24

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Ram Bhakti ‪@bhaktimeshakti2281‬
परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से।
((1803))

श्री भक्ति प्रकाश भाग(801)
WHO AM I (मैं कौन हूं) (आत्मबोध) याज्ञवल्क्य का आत्मदर्शन
भाग -५

हार्दिक धन्यवाद देवियो । अति सुंदर प्रसंग शुरू हुआ है । साधक जनो मैत्री का कल भी जारी रहेगा, मैत्री पराशर संवाद । काश यह चर्चा थोड़ी शेष ना होती, तो आज ही मैत्री की चर्चा शुरू कर दी जाती, कल करेंगे । आत्मा की जो चर्चा शेष है, कभी ना समाप्त होने वाली चर्चा पर संक्षिप्त रूप से आज उसे conclude करते हैं । थोड़ा व्यवहारिक पक्ष देखते हैं । पूज्य पाद स्वामी जी महाराज से किसी ने पूछ लिया -महाराज, सब संत महात्मा, सब बड़े पांवों को हाथ लगवाते हैं, आप क्यों नहीं लगवाते ? इससे शिष्यों में श्रद्धा बढ़ती है । मानो स्वामी जी महाराज के साथ थोड़ी बड़ी-बड़ी बातें करने की कोशिश की । व्यक्ति चाहे ना चाहे साधक जनो, आयु में भी जो बड़ा है, वह भी अपेक्षा रखता है कि मेरे पांव छुए जाएं । स्वामी जी महाराज ने कितना बड़ा काम किया हुआ है, शायद ही कोई कर सकने वाला हो । अपने जीवन काल में कभी किसी को पांव छूने की इजाजत नहीं दी ।

पूज्य श्री प्रेम जी महाराज ने तो और ही कमाल कर दी थी । कोई उनके पांवों को छूने की कोशिश करता, तो वह पहले छू देते जिन्होंने पूज्य श्री प्रेम जी महाराज के दर्शन किए हुए हैं, वह मेरे साथ सहमत होंगे । वह ऐसा किया करते थे । मानो अपने पांव छुआने की कोई गुंजाइश नहीं स्वामी जी महाराज उत्तर देते हैं -बंधुओं साधना सत्संगो में मैं पहले परमात्मा की आरती उतारता हूं और उसके बाद मैं यह कहता हूं, हे राम ! इन बंधुओं में तुम्हें विराजमान जानकर इन सब की आरती उतारता हूं । जिनकी मैं आरती उतारूं, उनको मैं कैसे अपने पांव छूने की इजाजत दूं। वह तो मेरे लिए वंदनीय हो गए । आरती तो बड़ों की उतारी जाती है । सोचे, मैं इनको कितना बड़ा मानता हूं, कि मैं उनकी आरती उतारता हूं । परमात्मा की नहीं ।कहा, कहा - हे राम ! मैं तुम्हें इन सब बंधुओं में विराजमान जानकर तो इनकी आरती उतारता हूं।यह नहीं कहा कि मैं तेरी आरती, तू बीच विराजमान है, तो मैं तेरी आरती, ना, मैं इनकी आरती उतारता हूं। व्यावहारिक पक्ष हैं आत्मबोध का ।

वह परमात्मदेव, वह परब्रह्म परमात्मा, हम सबके हृदयो में आत्मा के रूप में विराजमान है । ज्ञान उसे आत्मा कहता है । भक्त बहुत अच्छा मानता है, वह आत्मा नहीं, वह कहता है, परमात्मा मेरे भीतर विराजमान है। एक ही बात है । भक्त को यह शोभनीय है, ज्ञानी को वह शोभनीय है । दोनों में कोई अंतर नहीं है, कोई विरोध नहीं है ।

एक संत और एक शिष्य का आपस में वार्तालाप है । हमें सब को समझने में सहायी रहेगा । संत कहते हैं -
ना मैं देह हूं, ना इंद्रियां, ना मन, ना बुद्धि, ना प्राण और वह ऐसे ही विचरते है, अपने आत्मस्वभाव में । उसी स्वभाव को वास्तविक स्वभाव को, अपने सद्स्वभाव को, सद्स्वरूप में ही विचरते हैं । देही ऐसा नहीं करता । एक सामान्य व्यक्ति ऐसा नहीं, वह देह में विचरता है । यह आत्मा में विचरते हैं, वह देह में विचरता है । देवियो अंतर बहुत हैं । यदि कोई अच्छी बात होती तो संत महात्मा एवं शास्त्र कोई सुंदर शब्द इनके लिए प्रयोग करता । जो देह में विचरता है उसे देहाभिमानी कहा जाता है । जहां देवी अभिमान शब्द जुड़ जाता है, वह विनाशकारी शब्द है, पतनकारी शब्द है । सोचे, कितनी घृणित बात होगी शास्त्र की दृष्टि में अपने आप को देह मानना, अपने आपको हाड-मांस का पुतला मानना, मल मूत्र का बोरा मानना ।
कितनी निकृष्ट बात होगी जो शास्त्र ऐसों को देह अभिमानी कहता है, मिथ्या अभिमानी कहता है । देह भाव में विचरते हुए संसारी कहता है, साधक नहीं । शिष्य ने पूछा -आप आत्मा की बात करते हो महाराज, क्या आत्मा कभी किसी ने देखा है ? हां, मैं अभी भी आत्मा को ही देख रहा हूं, दर्शन कर रहा हूं । क्या मुझे भी दर्शन हो सकते हैं ? हां, क्यों नहीं हो सकते । कहां है वह ? भीतर जिसके कारण हम देखते हैं, बोलते हैं, सुनते हैं, सूंघते हैं, खाते हैं, पीते हैं, चलते हैं, फिरते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, खाना पचाते हैं ।
जिसके कारण हमारा हृदय गतिशील है,
हम सांस लेते हैं, छोड़ते हैं इत्यादि इत्यादि । वह भीतर विराजमान है । मुझे भी दर्शन हो सकते हैं ? हां, तू अपना परिचय पत्र दे, मैं अंदर भिजवा देता हूं । क्या नाम है तेरा ? अपना नाम बताया कमल । झूठ ! यह तेरा नाम नहीं है । नहीं, महाराज बिल्कुल सत्य है। सभी मुझे इसी नाम से पुकारते हैं । यह मेरा सही नाम है । यदि तेरा असली नाम यह होता तो गर्भ से निकलते ही तुम्हें इस नाम से पुकारा जाता, या गर्भ में होते हुए ही तुम्हें इस नाम से पुकारा जाता । तब तो किसी को पता भी नहीं होता कि अंदर लड़की है या लड़का । बाहर निकलते ही नाम दिया जाता है ।

श्री भक्ति प्रकाश भाग(801)**WHO AM I

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