बाल विनष्टक की कथा
Автор: धर्म की बात
Загружено: 2025-11-02
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बाल-विनष्टक की कथा
प्राचीन समय में रुद्रशर्मा नामक एक ब्राह्मण था। उस गृहस्थ की दो स्त्रियाँ थीं। उनमें से एक पुत्र प्रसव करके मर गई, अतः रुद्रशर्मा ने उसके बालक को दूसरी माता के हाथ सौंप दिया। जब वह बालक कुछ बड़ा हुआ तब उसकी माता उसे रूखा-सूखा भोजन देने लगी। इसी कारण वह बालक धूमिल शरीरवाला और बड़े पेट (तोंद) वाला हो गया।
बालक की शारीरिक स्थिति देखकर रुद्रशर्मा ने उस पत्नी से कहा कि 'तूने इस मातृहीन बच्चे की उपेक्षा की है।' उत्तर में उसने पति से कहा कि 'स्नेह से लालन-पालन करने पर भी यह ऐसा ही रहता है। इसके लिए मैं क्या करूँ?' उसके ऐसा कहने पर रुद्रशर्मा ने समझा कि यह इस बालक की प्रकृति ही है। स्त्रियों के झूठे और मोहकारी वचनों को कौन नहीं मान जाता? वह बालक ही विनष्ट है -वह बालक पिता के घर में बढ़ने लगा, इसलिए उसका नाम ही बाल-विनष्टक पड़ गया। एक बार बालक ने सोचा कि यह मेरी माता मेरी दुर्दशा करती है और अपने पुत्र का भलीभाँति लालन-पालन करती है, अतः मैं इसका बदला लूंगा। बालविनष्टक की अवस्था यद्यपि पाँच वर्ष की ही थी, किन्तु बहुत बुद्धिमान् था।
एक बार राजगृह से आये हुए अपने पिता को एकान्त में उसने अस्पष्ट स्वर में कहा- 'पिता! मेरे दो पिता हैं।' उसके कहने पर रुद्रशर्मा ने अपनी पत्नी को उपपतिवाला समझकर उससे स्पर्श करना भी छोड़ दिया। वह भी चिन्ता करने लगी कि 'मेरा पति सहसा कुपित क्यों है? अवश्य ही इस बाल-विनष्टक ने कुछ किया होगा।'
एक बार उसने बड़े ही प्रेम से बाल-विनष्टक को स्नान करा और सुन्दर तथा स्निग्ध आहार खिलाकर, उसे गोद में बैठाकर प्यार के साथ कहा- 'बेटा! तुमने अपने पिता रुद्रशर्मा को मुझपर कुपित क्यों करा दिया है?' यह सुनते ही बालक विमाता से कहने लगा। 'अभी मैं उससे भी अधिक कुछ करूंगा; क्योंकि तुम अपने लड़के के ही पालन-पोषण में ध्यान देती हो और मुझे सदा कष्ट देती हो।'
उसका यह उत्तर सुनकर ब्राह्मणी, सौगन्ध खाकर नम्रतापूर्वक उससे बोली 'अब मैं ऐसा न करूँगी। तुम मेरे पति को प्रसन्न करा दो।' तब वह बालक बोला 'जब मेरे पिता आवें तब तुम्हारी दासी उसे एक शीशा दिखावे, उसके बाद मैं सब कर लूंगा।' उसकी विमाता ने दासी को इसके लिए तैयार किया। फलतः उसने रुद्रशर्मा के आते ही उसे शीशा दिखलाया। उसी समय शीशे में अपने पिता के प्रतिबिम्ब को दिखाते हुए बालक ने कहा- 'यही मेरा दूसरा पिता है।'
बालक की बात सुनकर ब्राह्मण शंका-रहित हो गया और निष्कारण दूषित अपनी पत्नी के प्रति प्रसन्न हो गया। इस प्रकार एक बच्चा भी बिगड़कर दोष उत्पन्न कर सकता है। अतः हम लोगों को इन सभी आगतों को प्रसन्न रखना चाहिए।
उत्सव का समापन
ऐसा कहकर रुमण्वान् के साथ यौगन्धरायण ने वत्सराज के विवाहोत्सव में सम्मिलित समस्त जनों का सावधानी से ऐसा स्वागत किया कि प्रत्येक व्यक्ति यही समझता कि सारा प्रबन्ध मेरे ही लिए हो रहा है। अन्त में राजा ने यौगन्धरायण, रुमण्वान् और वसन्तक को स्वयं उत्तमोत्तम वस्त्र, आभूषण, इत्र, पान और ग्राम दान (जागीर) करके सादर पुरस्कृत किया (इनाम बाँटे)।
विवाह हो जाने पर वासवदत्ता से युक्त वत्सराज ने इसे अपने मनोरथों का फल समझा। चिरकाल की प्रतीक्षा के उपरान्त उमड़ा हुआ उनका प्रेम, प्रातःकाल के समय रात-भर के सन्तप्त चकवा-वकवी के समान सुखद हुआ।
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