महाभोज भाग -6 (मन्नू भंडारी)। हिंदी उपन्यास।Mahabhoj - Mannu Bhandari
Автор: Kahaniyon Bhari Duniya
Загружено: 2025-12-11
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#net #ugcnet #upscexam #hindisahitya #hindiupnyas #mahabhoj #mannubhandariनमस्ते। मन्नू भंडारी का उपन्यास 'महाभोज' (1979) हिंदी साहित्य के सबसे सशक्त राजनीतिक उपन्यासों में से एक है। यहाँ इसकी विस्तृत समीक्षा और सारांश दिया गया है:
परिचय
'महाभोज' भारतीय राजनीति के गिरते नैतिक स्तर, भ्रष्टाचार, और अवसरवादिता का एक नग्न दस्तावेज है। यह उपन्यास दिखाता है कि कैसे एक गरीब आदमी की मौत नेताओं, पुलिस और मीडिया के लिए अपनी रोटियां सेंकने का साधन (महाभोज) बन जाती है।
मुख्य पात्र (Key Characters)
दा साहब: राज्य के मुख्यमंत्री और सत्ताधारी पार्टी के नेता। ये ऊपर से गांधीवादी और आदर्शवादी दिखते हैं, लेकिन अंदर से बेहद धूर्त और कुटिल राजनीतिज्ञ हैं।
सुदामा शरीफ (सुकुल बाबू): विपक्षी पार्टी के नेता। ये भी उतने ही अवसरवादी हैं और बिसेसर की मौत को अपने वोट बैंक के लिए भुनाना चाहते हैं।
बिसेसर (बिसू): सरोहा गाँव का एक दलित युवक और सामाजिक कार्यकर्ता। वह शोषितों की आवाज उठाता है, जिसकी हत्या कर दी जाती है।
बिंदा: बिसू का बचपन का दोस्त। वह बिसू की हत्या का सच सामने लाना चाहता है, लेकिन सिस्टम उसे ही फंसा देता है।
जोरावर: गाँव का दबंग और रसूखदार व्यक्ति, जिसका प्रशासन और नेताओं से गहरा गठजोड़ है।
सक्सेना: पुलिस अधीक्षक (S.P.)। वह एक ईमानदार अधिकारी है जो सच तक पहुंचना चाहता है, लेकिन उसे सिस्टम द्वारा रोक दिया जाता है।
लखन: दा साहब का विश्वासपात्र और पार्टी का बाहुबली नेता।
उपन्यास का सारांश (Summary)
कहानी की शुरुआत:
उपन्यास की कहानी 'सरोहा' नामक गाँव से शुरू होती है, जहाँ बिसेसर (बिसू) नाम के एक हरिजन युवक की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो जाती है। उसकी लाश लावारिस पड़ी मिलती है। बिसू गाँव के गरीबों और शोषितों के हक के लिए आवाज उठाता था, जिससे गाँव का जमींदार जोरावर और उसके साथी नाराज थे।
राजनीतिक खेल:
बिसू की मौत होते ही वह सिर्फ एक लाश नहीं रहती, बल्कि 'वोट' का मुद्दा बन जाती है।
विपक्ष की चाल: विपक्षी नेता सुकुल बाबू तुरंत गाँव पहुँचते हैं और इसे हत्या बताकर दा साहब की सरकार के खिलाफ माहौल बनाते हैं। वे हरिजनों की हमदर्दी हासिल कर आने वाले उपचुनाव में सीट जीतना चाहते हैं।
सत्ता पक्ष की चाल: मुख्यमंत्री दा साहब को जब यह भनक लगती है कि मामला उनके हाथ से निकल रहा है, तो वे भी अपनी चाल चलते हैं। वे बिसू को अपना 'बेटा' बताते हैं और मामले की सी.बी.आई (C.I.D) जाँच का नाटक रचते हैं।
जाँच और असली चेहरा:
ईमानदार पुलिस अधिकारी सक्सेना जब मामले की जाँच शुरू करता है, तो उसे पता चलता है कि बिसू की हत्या जोरावर ने करवाई है क्योंकि बिसू ने जोरावर के भ्रष्टाचार के सबूत (आगजनी कांड के) जुटा लिए थे। सक्सेना जब जोरावर को गिरफ्तार करने की तैयारी करता है, तो दा साहब बीच में आ जाते हैं। दा साहब को चुनाव जीतने के लिए जोरावर के पैसे और बाहुबल की जरूरत है।
क्लाइमैक्स (अंत):
राजनीति का घिनौना चेहरा तब सामने आता है जब दा साहब, सक्सेना को सस्पेंड कर देते हैं और जाँच को गुमराह कर दिया जाता है। बिसू के सच्चे दोस्त बिंदा, जो गवाही देने वाला था और न्याय के लिए लड़ रहा था, उसी पर हत्या का झूठा आरोप मढ़ दिया जाता है। उसे जेल में डाल दिया जाता है और यातनाएं दी जाती हैं।
अंत में, बिसू की लाश पर सभी नेताओं, अफसरों और मीडिया ने अपना-अपना स्वार्थ सिद्ध किया। उसकी मृत्यु एक 'महाभोज' बन गई जहाँ गिद्धों की तरह सभी अपना हिस्सा नोचकर ले गए।
उपन्यास के मुख्य मुद्दे (Themes)
राजनीति का अपराधीकरण: उपन्यास दिखाता है कि कैसे अपराधी (जोरावर) और नेता (दा साहब) एक-दूसरे के पूरक हैं।
लोकतंत्र की विफलता: चुनाव जीतने के लिए नैतिकता को ताक पर रख दिया जाता है। जनता सिर्फ एक 'वोट बैंक' है।
दलित शोषण: गरीबों की आवाज़ उठाने वाले (बिसू) को मार दिया जाता है और जो उसके लिए लड़ता है (बिंदा), उसे जेल भेज दिया जाता है।
प्रेस/मीडिया की भूमिका: मीडिया भी बिकाऊ है और वह भी इस 'महाभोज' में शामिल होकर टीआरपी और पैसा कमाता है।
निष्कर्ष
'महाभोज' का शीर्षक प्रतीकात्मक है। जिस तरह मृत्युभोज में बिरादरी के लोग खाना खाने आते हैं, उसी तरह बिसू की मौत पर नेता, पुलिस और मीडिया अपना-अपना स्वार्थ पूरा करने (भोज खाने) आ जुटते हैं। यह उपन्यास आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना 1979 में था।
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